Wednesday, July 14, 2010

गरीब को मिटा दो, गरीबी हट जाएगी

दिनेश गौतम, 9772222667
सरकार पिछले ५० सालों से गरीबी मिटाने का नारा देती रही है, लेकिन आज दिन तक गरीबों की संख्या बढ़ी ही है, भले ही आंकड़ों में इसका फीसदी कम हो गया हो। लेकिन अब जिस तरीके की सरकारी नीति चल रही है उससे मध्यमवर्गीय परिवार या तो झूठ, बेईमानी और अपराध करके उच्च वर्ग में शामिल हो जाए या फिर इमानदारी का चौला ओढ गरीब बन जाए। समाज के लोगों के बीच आज भी कुछ हद तक लोग न तो बेईमान कहलाना पसंद करते है और न ही गरीब ऐसे में लोग बैंक से कर्जा लेकर या किसी साहूकार के पास उधार कर अपने आप को समाज के लायक बना लेते है। नतीजा न तो कर्ज चुक पाता है और न ही वह मान सम्मान बचता है। सरकारी नीतियों की चर्चा करें तो समझ में आता है कि वाहनों पर सरकार ने रियायतों का पिटारा खोल दिया, लेकिन पेट्रोल के दामों पर बेतहाशा वृद्धि कर दी, फ्रिज, कूलर, एसी सस्ते कर दिए तो क्या हुआ बिजली महंगी कर दी। ऐसे में अब सरकारों को गरीबी हटाओ का नारा नहीं देकर गरीब मिटाओ का नारा दे देना चाहिए।
गर्मी की तपिश देख मन ललचा गया,सोचा क्यों लोग गर्मी से दूर भागते है। कितनी गालियां देते है। गर्मी नहीं आती तो पानी का मोल पता चलता? हमारे वैज्ञानिकों ने जो ठंडे करने के यंत्र एयरकंडीशन बनाए है उनका भोग कौन करता? प्रोडक्ट बनाने वाली कंपनी और शायद कुछ लोगों को ये नागवार गुजरे।
अब जिसके पास घर में खाने को दाने नहीं वो एक बिजणी खरीदने में डरता हो उसे एयरकंडीशन से क्या साबका। लेकिन हमारा देश तरक्की कर रहा है, इतनी तरक्की की सरकार ने प्रति व्यक्ति आय इतनी बढ़ा दी किसी को गरीब कहना ही बेईमानी है मध्यमवर्गीय परिवारों को खाने के लाले पड़ रहे है। हमारे देश की पोजीशन उस किवदंती की तरह जो कहती है कि सौ में से अस्सी बेईमान फिर भी मेरा देश महान। अब भला भ्रष्टाचार में इजाफा होगा तो देश चलाने वालों के साथ ही देश के बेईमानी का रेटिंग भी तो बढ़ेगा। हमारे देश में बेईमान बढ़ाना तरक्की ही तो है। सरकारी जमीन पर कब्जा करने वालों को सभी मूलभूत सुविधा देना सरकार अपनी वाह-वाही समझ रही है, जबकि कर्जा लेकर इज्जत से जमीन खरीदने वालों को ठगा जा रहा है, सरकार ठगों को संरक्षण दे रही है। उन लोगों को कोई सुविधा यदि मिल जाए तो जेब फाडऩे वाले टेक्स शुरू कर दिए जाते है। हमारी राज्य सरकार की सोचो उसने बीपीएल परिवारों को २ रुपए किलो की दर पर अनाज उपलब्ध कराने की योजना शुरू की, मध्यमवर्गीय का विरोध शुरू हो गया। विरोध कर रहे परिवारों का कहना है कि तीन से पांच हजार रुपए की पगार में महीने का गुजारा नहीं हो रहा। दूध में पानी भी मिलाकर पीएं तो भी महंगा पड़ रहा है, सब्जी के दूरदर्शन कर रोटी खाएं तो भी महीने का आधा ही अनाज आ पाएगा। पढ़ाई को प्रत्येक बच्चों का हक कहने वाली सरकार ने निजी स्कूलों को फीस बढ़ाने के मामले में खुली छूट दे रखी है, यही कारण है कि खुद से ज्यादा या अच्छे स्कूल में पढाने का ख्वाब देख रहे पेरेन्ट्स के सपने कुचल दिए है। सरकारी स्कूलों की दूरी इतनी ज्यादा है कि रोजाना हो रही शहर की वारदातों को सुन गरीब भी अपने बच्चों को अकले इतनी दूर भेजने से कतरा रहा है।

Saturday, July 10, 2010

लव इज नथिंग

दिनेश गौतम, 9829422667
क्या प्यार वाकई में अंधा होता है या खुद के स्वार्थ को हम लेाग प्यार का नाम देते है। जिस समाज और परिवार में मैंने जन्म लिया वहां प्यार का मतलब दो अजनबियों का एक दूसरे के प्रति शारीरिक आर्कषण तो कतई नहीं था। दादाजी का गुस्सा भी हमें तो प्यार नजर आता था, ये अलग बात है कि उनके ज्यादा टोकने पर हम झुंझला जाते थे। मां की डांट और पापा से डर भी अब उनके प्यार का अहसास करवाता है। ज्यादातर पापा के बडे भाई के नजदीक रहा जो पुलिस में थे, उनका बोलना ही लोगों की पेंट गीली करने के लिए काफी था। लेकिन पता नहीं क्यों कभी मैं उनसे डरा नहीं। उनका ही असर है कि आवाज में मेरे भी वो कर्कशपन है। ये आवाज लोगों को भले ही पसंद नहीं आती, पर मुझे ऐसा लगता है कि लोगों को खुश करने के लिए नेचुरल चीज को खो दूंगा।

बात प्यार की चल रही थी और अपने आपको प्रदर्शन के लिए खड़ा कर दिया। इन दिनों जिस मीडिया लाइन मेें काम कर रहा हूं। वो सीधा पब्लिक से जुड़ा हुआ है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ इस पेशे में में ही पब्लिक से जुड़ा हूं, लेकिन नए कांसेप्ट पर हमारे मोबाइल नंबर सार्वजनिक हो रहे है जिससे कई तरह के फोन आते है। कई वेवजह तो कई अपनों से परेशान। कोई अपनी गलती को छुपाकर हमें सामने वाले के लिए फर्जी सबूत तक ला देता है। इसमें निर्णय करना बडा टेडा काम है कि क्या वाकई में लोग सही कर रहे है। ऐसे ही एक दिन एक लड़की की धीमी आवाज में आने वाले फोन ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। ऐसा नहीं है कि किसी लड़की ने पहली बार फोन किया था, पर उसकी मुझसे अपेक्षा देख मैं इस प्यार के शब्द पर सोचने को मजबूर हो गया।

पिछले छह माह में दो प्रतिष्ठित अखबारों में क्राइम रिपोर्टिंग कर चुका हूं। प्यार और उसकी वजह से होने वाले अपराधों से जुड़ें अनेको मामले देख चुका हूं। जितने भी मामले सामने आए उसमें से इस तरह का दूसरा मामला था। एक बार पहले मामले के बारे में बता दूं कि वह भी एक लड़की ने करीब दो माह पहले किया था, लेकिन उसने मेरा ध्यान केवल इस वजह से खींचा कि यदि हमने उसकी मदद नहीं की तो वह आत्महत्या कर लेगी। भला रिपोर्टर के अलावा हम भी तो इंसान है। कैसे किसी को ऐसे ही मरने के लिए छोड़ सकते है। उसने रोते हुए जब ऐसी बात कह दी तो हमने उसे भरोसा दिलाया और क्या मदद कर सकते है पूछा तो मुरलीपुरा निवासी रीटा चौधरी नामक उस लड़की ने रोते हुए बताया कि उसके घर वाले उसे बेच रहे है। एक रिपोर्टर के लिए इससे बड़ी सूचना और क्या हो सकती है कि किसी लड़की को बेचा जा रहा हो और उसकी जानकारी खुद लड़की दे रही हो। मैंने जैसे तैसे उसे शांत कराया और उससे जानकारी ली तो उसने एक लड़के से प्यार का जिक्र किया। हमें लगा कि संभव हो उस लड़के से शादी नहीं कराने को लेकर परिजन इस हैवानियत पर आ गए कि लड़की को बेचने के लिए तैयार हो गए।

हमने ये बात हमारे बॉस को बताई तो उन्होंने बताया कि जमीन और जोरू इनसे सावधान रहने की ज्यादा जरूरत है। ये तो हम भी समझते है कि जमीन की कीमत और लड़की के मन का कोई अंदाजा नहीं लगा सकता, लेकिन हमेशा ऐसा कहकर अपनी जिम्मेदारी से तो नहीं भाग सकते। हमने काफी सोचा इस दौरान कई दफा उस लड़की के फोन आए और हम उसे झूठी तसल्ली देते रहे। आखिरकार हमने उस लड़की को थाने के नंबर देकर मदद की गुहार लगाने को कहा तो उसने बताया कि मेरे पापा खुद इस थाने में ही इसलिए कुछ नहीं हो सकता। हम तो और भी परेशान हो गए कि पुलिसवाला अपनी ही जवान बेटी को आखिर बेच क्यूं रहा है। हमने उसे एक मोबाइल नंबर देकर अपनी परेशानी बताने के लिए कहा।

इसके बाद हमने आईजी बीएल सोनी से इस मामले की बात की और लड़की के नंबर दे दिए। करीब तीन घंटे बाद आईजी सोनी का फोन आया और बोला कि आपको सूचना किसने दी। मैंने लड़की के बारे में बताया। आईजी ने पूछा कि उसको मेरे नंबर आप ही ने दिए है क्या तो मैंने हां कहा। सोनी में मुझसे कहा कि आपके फोन आने के बाद उसका लड़की का फोन आया था। जब उसने मुझे पोजीशन बताई तो मैंने यहां से एडिशनल एसपी को भेजा था। मैंने उन्हें कहा कि जब वहां से जानकारी आ जाए तो एकबारगी मुझे भी इत्तला कर देना ताकि उसे हम भी देखें की क्या वजह थी। शाम को आईजी सोनी का फोन आया कि सारा मामला सुलट गया है। हमने पूछा कि क्या रहा तो बताया कि लड़की एमए पढ़ी लिखी २१ साल की थी। वह किसी मुस्लिम लड़के से मोहब्बत करने लगी। हमने उस लड़के को भी बुलाया तो पता लगा कि उसकी शादी पांच साल पहले हो चुकी थी। उसके दो बच्चे है और आठवीं जमात ही पास है। लड़की को उसकी शादीशुदा जिंदगी के बारे में मालूमात ही नहीं थी। धोखे में रखकर किया गया ये भी प्यार था। उसके बाद सब कुछ सही हो गया।

ठीक दो महीने बाद फिर एक और फोन आया जिसने फिर से मेरा ध्यान खींचा। वो मुरलीपुरा जैसे इलाके से था तो इस बार आगरा रोड पर जामड़ोली जैसे क्षेत्र से।
इस बार भी दबी हुई आवाज और रोते हुए कह रही हो मुझे तो बचाना जरूरी नहीं उसे जरूर बचा लो। उसे कौन? इसी सवाल पर हम उसे कुरेदते गए और परतें खुलती गई। मालियों की लड़की नाम गुणवंती, अपने आपको बीए पढ़ी-लिखी बता रही थी। लड़का मीणों की ढाणी में रहने वाला था जो उसी समाज का था। आठवीं पढ़ा लिखा लेकिन मजदूरी कर पट पालता था। कहानी में ट्विस्ट ये है कि लड़की को लड़के की शादीशुदा जिंदगी के बारे में मालूम है। गुणवंती का कहना है कि उसकी छोटी उम्र में ही शादी कर दी गई। अब उसके दो बच्चे जरूर है लेकिन वो उसे तलाक देना चाहता है। हम दोनों एक दूसरे से बेहद प्यार करते है। मुझे मेरे घरवालों ने कैद कर रखा है और उसे उसके समाज वालों ने। हालंाकि ये जानकारी दोनों के ही परिवार वालों को है। लेकिन पता नहीं क्यूं उसके समाज वालों ने उसको बंद कर रखा है। प्लीज उसे कैद से छुड़ा दो। जब मैंने उसे समझाने की कोशिश की तो कहा कि मुझे कुछ नहीं सुनना केवल उसे छुड़वा दो। मैंने गुणवंती को पुलिस में सूचना देने की बात कही तो उसने कहा कि पुलिस उसके समाजवालों से मिली हुई है। आखिर इस कहानी का आधार भी वहीं प्यार है जो आंखों पर पट्टी बांधे किया जा रहा है। मैंने इस बारे मेंं काफी सोचा कि क्या लड़की पहली पत्नि को तलाश दिलवाकर बीच राह में छोड़ देना और किसी कुंआरी लड़की से शादी करना जायज है। उन दो बच्चों का क्या कसूर है। उस पत्नी का क्या दोष है जो अपने घर को छोड़ पति के सहारे रह रही है।

मैंने उसकी कहानी को सुना और मदद करने का आश्वासन देने के बाद फोन काट दिया। दो दिन बाद फिर वहीं फोन आया, आखिर हमने पूछा कि हम उसे छुड़वा देंगे, लेकिन तुम उसे छोड़ दोगी? उसका कहना था कि इस बारें में आपको कुछ नहीं कह सकती। हम दोनोंं राजी है तो फिर पता नहीं क्यों लोग हमारे बीच में आ रहे है। मैंने उसे समझाया कि कहीं तुम समझना नहीं चाह रही इसका मतलब कोई गलती तो नहीं कर बैठी, उसने मुझसे ही कुरेदना शुरू कर दिया कि गलती कैसी? जब हमने बात घुमायी और उसे साफ कह दिया कि यदि तुम उस लड़के की जिंदगी से दूर हो जाओं तो मैं उसे कैद मुक्त करवा सकता हूं,वरना तुम्हारे लिए किसी का परिवार नहीं उजाड़ सकता। पर वो केवल मुझे नाम पता देती रही और उसे कैद से मुक्त कराने की कहती रही।

Saturday, June 5, 2010

संस्थान-छात्र फर्जी, छात्रवृत्ति असली

](30/05/2010)
प्लॉट नंबर सी-242, 243 सिंहभूमि, खातीपुरा पर एक सैकंडरी स्कूल है, जिस पर अबेकस एकेडमी का बोर्ड लगा है, जबकि सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग (पुराना नाम समाज कल्याण विभाग) के रिकॉर्ड के मुताबिक यहां मेडिकल टेक्नालॉजी एंड नर्सिग एजूकेशन नाम का इंस्टीट्यूट होना चाहिए। यह वही इंस्टीट्यूट है, जिसने वर्ष 2007-08 में 18 अनुसूचित जनजाति (एसटी) छात्रों के नाम 8,39,610 रुपए तो 2008-2009 में 17 एसटी छात्रों के नाम पर 7,58,060 रुपए उठाए गए थे। मजे की बात यह है कि सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग अधिकारियों ने इस कॉलेज का फिजीकल वेरीफिकेशन भी किया है।

फर्जी संस्थान और अनुसूचित जाति के फर्जी छात्रों के नाम पर लाखों रुपए की छात्रवृत्ति हड़पने की जानकारी मिलने पर डीबी स्टार टीम ने पखवाड़े भर तक मामले की तहकीकात की। टीम ने समाज कल्याण विभाग के रिकॉर्ड से कुछ संदिग्ध संस्थानों के नाम छांटकर उनका वेरीफिकेशन किया। हकीकत सामने आई कि विभागीय अधिकारियों की मिलीभगत से लाखों रुपए की छात्रवृत्ति की बंदरबांट हो रही है। अगर अब तक वितरित छात्रवृत्ति की जांच कराई जाए तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे और करोड़ों रुपए का घपला भी उजागर होगा।

फिलहाल डीबी स्टार की तहकीकात में जो तथ्य सामने आए हैं, उनके मुताबिक पिछले कई सालों से जिन नर्सिग, मेडिकल संस्थानों के छात्रों को सरकार छात्रवृत्ति प्रदान कर रही है, दरअसल उनमें से कई का तो अता-पता ही नहीं है। कई संस्थानों को संबंधित एजेंसी या विभाग से मान्यता ही नहीं मिली है। ऐसे में यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि विभागीय अधिकारी लाखों रुपए किसे बांट रहे हैं? जिन अधिकारियों पर जरूरतमंद छात्रों को छात्रवृत्ति देने का दारोमदार है, उनकी मिलीभगत के बगैर क्या इतने फर्जी संस्थानों को छात्रवृत्तियां जारी हो सकती थीं?

जिस तरह से छात्रवृत्ति वितरण में अंधेरगर्दी चल रही है, उससे साफ है कि भ्रष्ट ताकतों को सरकार में बैठे आला अफसरों का संरक्षण भी मिल रहा है। खातीपुरा स्थित नर्सिग इंस्टीट्यूट की तरह डीबी स्टार टीम, सीतापुरा स्थित विनायक डेंटल कॉलेज को रीको इंडस्ट्रियल एरिया में तलाशने निकली तो उसका समाज कल्याण विभाग के रिकॉर्ड में दर्ज पते पर अस्तित्व नहीं मिला। यही हाल श्री कृष्णा कॉलेज ऑफ नर्सिग, कोटपूतली के मामले में मिला। मामले में पूछताछ करने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों से संपर्क साधने के लिए टीम सोमवार को झालाना स्थित छात्रवृत्ति कार्यालय पर पहुंची तो एक-दो कर्मचारियों के अलावा कोई नहीं मिला।

वहां गार्ड से उपनिदेशक बीपी मीणा से मिलाने के लिए कहा गया तो जवाब मिला कि साहब किसी संगोष्ठी में शामिल होने के लिए गए हैं, शाम को लौटेंगे। उसके बाद टीम ने आगे के दिनों में कई विभागीय अधिकारियों से पूछताछ की। ज्यादातर अधिकारी मुंह तक खोलने को तैयार नहीं हुए। उनका कहना था कि यह कोई नई बात नहीं है। ऊपर वालों को भी सब पता है, उनका हिस्सा भी तो जाता है। कुल मिलाकर पूरे कुएं में भांग घुली नजर आई। इसके अलावा, भ्रष्टाचार से परेशान जिन अधिकारियों न मुंह खोला, ऑफ द रिकॉर्ड विभाग की पूरी पोल पट्टी ही खोल कर रख दी। फिलहाल हम यहां तहकीकात और बातचीत के वही अंश दे रहे हैं, जो रिकॉर्ड हैं।

भले विभाग को चंद लोगों ने बदनाम कर दिया

पीएस मेहरा, आयुक्त, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग से सवाल

हमें जानकारी मिली है कि कुछ संस्थानों ने फर्जी दस्तावेज से छात्रवृत्ति उठाई है?
नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता। ऐसा कोई मामला सामने आता तो मुझे भी जानकारी होती।

लेकिन हमारे पास दस्तावेज हैं जो इस बात की चुगली कर रहे हैं कि लाखों रुपए छात्रवृत्ति के उठाए गए हैं?
आप मुझे जानकारी दें, ये तो सरासर फर्जीवाड़ा है। इसकी जांच कर संबंधित अधिकारी-कर्मचारी पर कार्रवाई जरूर होगी।
इससे पहले भी कई प्रकरण सामने आए हैं,उनमें भी तो आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई़
मैंने सभी मामलों की जांच के आदेश कर दिए थे। जांच चल रही है, रिपोर्ट आने के बाद कार्रवाई जरूर की जाएगी। वैसे भी समाज का भला करने वाले विभाग को चंद लोगों ने बदनाम कर रखा है। उन्हें बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

दो साल पहले तत्कालीन कमिश्नर ने विभाग में भ्रष्टाचार का मामला नजर आने पर थाने में एफआईआर दर्ज कराने के आदेश निकाले थे, लेकिन आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई?
हां..आप ठीक कह रहे हैं। ऐसे आदेश निकाले हैं, लेकिन कोई मामला दर्ज ही नहीं हुआ। इसके मायने ये हंैं कि विभाग की नजर में कोई भ्रष्टाचार नहीं है।

लेकिन मामले तो लगातार सामने आ रहे हैं?
जानकारी करवाता हूं। छात्रवृत्ति मामले में गलत हुआ है तो कार्रवाई जरूर होगी।

विभाग ने रोक दिया
डॉ. शिवराज (पूर्व संचालक) से सवाल

आपके इंस्टीट्यूट के छात्रों के नाम से समाज कल्याण विभाग से लाखों रुपए की छात्रवृत्ति उठाई गई है?
मुझे पता नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।

ऐसा ही है, हमारे पास कागजात हैं?
अब पुरानी बातों का क्या फायदा, मैं इंस्टीट्यूट तो बेच चुका हूं।

ठीक है, हम खरीदार से पूछेंगे, मगर छात्रवृत्ति इंस्टीट्यूट बिकने से पहले उठाई गई है?
देखिए हमें कुछ याद नहीं है। कुचामन, नागौर में हमारा एक इंस्टीट्यूट और है, उसमें शैलेंद्र नाम के कर्मचारी ने ऐसी हरकत की थी। जानकारी में आने पर हमने उसकी शिकायत थाने में करने के लिए शिकायत दी थी, लेकिन समाज कल्याण विभाग ने ऐसा करने से रोक दिया था।

हमने हाल ही कॉलेज खरीदा है
रामबाबू शर्मा, निदेशक, मेडिकल एंड इंस्टीट्यूट ऑफ नर्सिग से सवाल

क्या आपके कॉलेज को आईएनसी से मान्यता प्राप्त है?
हां..30 सितम्बर 2009 में ही मान्यता मिली है।

लेकिन आपकी कॉलेज के नाम पर तो पिछले दो सालों से स्कॉलरशिप उठाई जा रही है?
ऐसा कैसे हो सकता है। हमने तो ये कॉलेज हाल ही में खरीदा है।

खरीदा है क्या मतलब?
पहले ये कॉलेज कोई और सोसायटी चलाती थी, उसे हमने खरीद लिया। इसके बाद रजिस्ट्रेशन की कवायद शुरू कर दी।

लेकिन कॉलेज छात्रों के नाम दो सत्रों में करीब 15 लाख रुपए की छात्रवृत्ति उठाई गई है, इसके लिए किसको जिम्मेदार माना जाए?
हमने तो छात्रों को स्कॉलरशिप के लिए अभी आवेदन ही किया है। छात्रवृत्ति के लिए समाज कल्याण विभाग में बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। यदि किसी को छात्रवृत्ति गलत जारी की गई है तो विभाग के लोगों की ही जिम्मेदारी है।

कॉलेज खरीदा तब जानकारी नहीं थी कि कुछ फर्जीवाड़ा हो रखा है?
नहीं हमें कल ही समाज कल्याण विभाग के एक अधिकारी ने फोन कर छात्रवृत्तियों के बारे में पूछताछ की तब पता लगा।

मैंने रिकॉर्ड चैक करवा लिए हैं। मेडिकल एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट ऑफ नर्सिग खातीपुरा, जयपुर व श्री कृष्णा कॉलेज ऑफ नर्सिग, कोटपूतली नाम के किसी इंस्टीट्यूट को उनके यहां से मान्यता नहीं मिली हुई है। - दयाशंकर शर्मा, रजिस्ट्रार, राजस्थान नर्सिग कौंसिल

Sunday, May 2, 2010

बचा लो मुझे... मैं पानी हूं

हां मेरा नाम पानी है।
मेरे अतीत की एक कहानी है।।
मेरे पिता कहते है, वंश हमारा सुसुप्त होने जा रहा है।
हंसता-खेलता कुनबा लुप्त होने जा रहा है।।
आपके जुल्मों से मैं बहुत छला गया।
इसलिए सबसे पहले आंखों से चला गया।।
क्योंकि आपने किया है मेरा दुरूपयोग, बरबादी।
आज की पोजीशन आप स्वयं ने ला दी।।
कभी मेरा सम्मान था।
इस बात पर मुझे गुमान था।।
मैं कुएं से निकाला जाता था।
तब मैं नीचाई से ऊंचाई की ओर आता था।।
मटकों में डालने के लिए मेरा सिर ऊंचा किया जाता था।
तब मैं फूला नहीं समाता था।।
नई नवेलियों के सिर पर मटकों में झूल जाता था।
गर्व से मेरा सीना फूल जाता था।।
लोग मुझे लोटा गिलास में सम्मान से सजाते थे।
मेरी कद्र करते थे, व्यर्थ नहीं बहाते थे।।
तब मैंने कभी अभाव का रोना नहीं रोया।
अपना आपा कभी नहीं खोया।।
पहले में बहुत था, आपकी आस था।
आपसे दूर नहीं, बल्कि आपके पास था।।
लोग अनायास ही मेरा सपना पाल लेते थे।
दस बीस फीट खोदकर मुझे निकाल लेते थे।।
क्योंकि तब आप मेरा सम्मान करते थे, व्यर्थ नहीं बहाते थे।
लोटा गिलास में सजाते थे, कम से ही काम चलाते थे।।
समय ने करवट बदला, मुझे व्यवस्था ने जकड़ा।
मेरा पथ टेकी, पाइप और टूंटी ने पकड़ा।।
अब मैं टंकी की ऊंचाई से नीचाई पर लाया गया।
मैं अपमानित हुआ, मुझ पर जुल्म ढ़हाया गया।।
पाइप के लीकेज मुंह चिढ़ाने लगे।
मुझे अनावश्यक ही बहाने लगे।
टूटी टंूटियों से यूं ही बहता रहा।
अपनी दर्द भरी कहानी कहता रहा।।
पाइप के लीकेज से सड़क पर सागर बन गया।
वक्त के थपेड़ों से सरिता से गागर बन गया।।
सभी को बता देना, मैं पानी हूं।
गुजरे वक्त की एक कहानी हूं।।
मुझे बूंद-बूंद बचाना तुम्हारे काम आऊंगा।
नहीं तो तुमसे दूर-बहुत दूर चला जाऊंगा।।
मुझे पाने के लिए आपकी आंखें बरसेंगी।
पानी-पानी कहकर आपकी पीढियां तरसेंगी।।
साभार- अब्दुल अय्यूब गौरी, जयपुर

वोल्वो नहीं डीलक्स प्लीज...

रोडवेज बसों को खत्म कर रहा अपने बेड़े से
आम आदमी की यात्रा हुई महंगी
निजी बसों को फायदा पहुंचाने के लिए राजस्थान रोडवेज ने डीलक्स बसों की खरीद बंद कर दी है। ये हम नहीं कह रहे बल्कि रोडवेज के ही आंकड़े इस बात का खुलासा कर रहे है। आंकड़ों से साफ है कि पिछले दो साल में करीब १८०० बसों की खरीद के लिए अनुमति मिलने के बाद भी रोडवेज प्रशासन ने एक भी डीलक्स बस नहीं खरीदी।
सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक बजट वर्ष २००७-०८ से पूर्व रोडवेज प्रशासन करीब ५० डीलक्स बसों की सालाना खरीद करता था। जिससे यात्रियों को खटारा और पुरानी बसों की जगह नई बसों की सुविधा मिल सके। वर्ष २००७-०८ में राज्य सरकार से अनुमति मिलने के कारण किसी भी श्रेणी की बस नहीं खरीदी गई। इसके बाद रोडवेज को वर्ष २००८-०९ में राज्य सरकार ने ११५० बसों को खरीद करने की अनुमति मिली, इन बसों में ५० बसें डीलक्स व एसी बनवाई जानी थी, लेकिन रोडवेज प्रशासन ने इस और बेरुखी अपनाई। रोडवेज ने स्वीकृत की गई ११५० बसें एक्सप्रेस कैटेगरी की तैयार करवा ली। चालू सत्र में भी सरकार ने रोडवेज को ६५० बसें खरीदने को हरी झंडी दे दी, लेकिन रोडवेज इस बार भी डीलक्स और एसी बसें खरीदने में रूचि नहीं दिखा रहा हैं।
किराए का अंतर --जयपुर से दिल्ली का किराया डीलक्स - ३०० रुपए, एसी - ४०० रुपए व वोल्वो -५५० रुपए है। डीलक्स बसें नहीं होने से मध्यम वर्गीय लोगों के लिए सस्ती यात्रा का विकल्प समाप्त हो गया, जिसका फायदा निजी बस ऑपरेटर्स उठा रहे है। डीलक्स बसों का रूट जयपुर-कोटा, जयपुर-जोधपुर, जयपुर- आगरा ही रहता था। यही कारण है कि पिछले सालों में हाइवे पर दौडऩे वाली रोडवेज की डीलक्स बसों की संख्या मात्र २ रह गई है। जबकि पिछले कुछ साल पहले इनकी संख्या १६ से १८ हुआ करती थी। निजी बस ऑपरेटर्स रोडवेज से कम्पीटिशन के फेर में अपनी रेट्स कम रखते थे, लेकिन जब सरकारी एजेंसी ही फेल हो गई तो उन्होंने भी मनमानी दरें बढ़ाकर मध्यमवर्गीय लोगोंं की जेब पर वजन डाल दिया।
यह है तकनीकी कारण
डीलक्स बसें ५ किलोमीटर चलने के बाद तकनीकी तौर पर सेमी डीलक्स किराए पर संचालित होती है, क्योंकि बसों का स्तर डीलक्स के मुताबिक नहीं रहता। ऐसे में रोडवेज ८० फीसदी से ज्यादा डीलक्स बसों को सेमी डीलक्स बसों के किराए पर ही संचालित कर रहा है। जिम्मेदारी से बचने के लिए डीलक्स जोन के मैनेजर ने दिल्ली व आगरा हाइवे को छोड़कर दूसरे मार्गो पर चलने वाली डीलक्स बसों को अन्य आगारों में ट्रांसफर कर दिया। रोडवेज प्रशासन एसी व वोल्वों बसों पर ही ध्यान दे रहे है जबकि मध्यम श्रेणी के यात्रियों को रोडवेज प्रशासन के कारण महंगी यात्रा करने को मजबूर होना पड़ रहा है।

सीएमओ से गायब होती हैं पत्रावलियां!

मुख्य सूचना आयुक्त ने दिया आदेश जांच कर तय करें जिम्मेदारी
मुख्यमंत्री कार्यालय से कभी भी कोई जरूरी दस्तावेज गायब हो सकते है। प्रदेशवासियों की ओर से मुख्यमंत्री को भेजे जाने वाले ज्ञापन और शिकायती पत्रों को संभालने की जिम्मेदारी भी तय नहीं है। ये हम नहीं कह रहे बल्कि मुख्य सूचना आयुक्त की ओर से हाल ही जारी एक आदेश का आशय तो यही निकलता है। आदेश में साफ लिखा है कि सबूतों के आधार पर तो प्रार्थी केे पत्र सचिवालय को भेजे गए है, जबकि जवाब में किसी भी तरह का कोई भी ज्ञापन फैक्स, स्पीड पोस्ट मिलने से इनकार कर दिया।
जानकारी के अनुसार स्वेज फार्म संयुक्त महासंघ के अध्यक्ष संजय शर्मा ने २६ अप्रैल २००८ को स्पीड पोस्ट के जरिए ८८ पेजों का एक शिकायत पत्र भेजा था। पत्र में तीन आवासीय योजनाओं में कुछ प्रशासनिक अधिकारियों पर मिलीभगत कर पद के दुरूपयोग की शिकायत की थी। उसके बाद महासंघ के प्रतिनिधि मंडल ने ४ अगस्त, ०८ मुख्यमंत्री कार्यालय में सचिव को ज्ञापन सौंपा गया। शर्मा ने १५ दिसम्बर, ०८ को सीएमओ में फैक्स कर अपनी शिकायत दर्ज कराई। लंबे अंतराल के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं होते देख शर्मा ने मार्च, ०९ को सूचना के अधिकार में मुख्यमंत्री कार्यालय से तीनों शिकायतों पर क्या कार्रवाई की गई इसकी जानकारी मांगी। जब निर्धारित अवधि में सूचना नहीं दी गई तो प्रथम अपील अधिकारी के सामने अपील की, वहां भी कोई जवाब सीएमओ से नहीं आया। उसके बाद शर्मा ने मुख्य सूचना आयुक्त के सामने अपील की। सूचना आयोग की ओर से भेजे गए नोटिस का मुख्यमंत्री कार्यालय ने जवाब दिया कि विभिन्न तरीकों से भेजे गए तीनों ही पत्र प्राप्त नहीं हुए है। सुनवाई में शर्मा ने फैक्स और स्पीड पोस्ट की रसीदें दिखाई।
उपस्थित ही नहीं
सूचना के अधिकार के प्रति मुख्यमंत्री भले ही सम्मान करते हो, लेकिन उनके कार्यालय में तैनात अधिकारियों को ऐसा नहीं लगता। यही कारण है कि आयोग की सुनवाई में मुख्यमंत्री कार्यालय की ओर से पक्ष रखने के लिए कोई उपस्थित नहीं था। जानकारों का कहना है कि जब जिम्मेदार लोग ही कानून की इस तरह से अवहेलना करेंगे तो और सरकारी विभागों से क्या अपेक्षा की जा सकती है।
ये दिया आदेश
आयोग के अध्यक्ष एमडी कौरानी ने नरम रूख अपनाते हुए लिखा कि मुख्यमंत्री कार्यालय के अधिकारी जांच करवाए कि उनके कार्यालय में पत्र मिलने के बाद भी उपलब्ध क्यों नहीं हो रहा है। जिस रजिस्टर्ड पत्र का संदर्भ दिया गया है वह पार्सल उनके कार्यालय में प्राप्त हुआ था या नहीं। यदि नहीं हुआ तो समस्त पत्रादि कहां गए। यह जांच कर उत्तरदायित्व निर्धारित करते हुए अग्रिम कार्यवाही करवाई जाए।

Saturday, April 24, 2010

देह व्यापार की जकड़ में राजधानी

सच्ची कहानी जो एक लड़की की जिंदगी में काला सच बनकर आई
शहर में बढ़ती वारदातों की तह में जाने पर निकली सच्चाई
मैं राजधानी के एक इलाके में मध्यम वर्र्गीय परिवार से ताल्लुक रखती हूं। खूबसूरत होने के साथ ही यौवन की दहलीज पर भी पैर रख दिया था। यही कारण था कि परिवार आर्थिक स्तर कमजोर होने से छोटी-छोटी चीजों के लिए उन पर निर्भरता समाप्त करने की इच्छा रहती थी। लड़कियों की इसी कमजोरी का फायदा उठाकर अपनी गिद्ध जैसी नजरें गढाए जानवर सरीखे लोग मौके की तलाश में बैठे रहते है। पलभर की चुप्पी जीवनभर को आंसुओं में डुबाने के लिए काफी होते है। ऐसे ही एक गिरोह की गिरफ्त में आने के बाद उनके बाद अपने आप को आजाद मानकर सादा जीवन जीनें की आस जगाई थी, लेकिन आए दिन अनजाने लोगों के फोन आने और परेशान करने पर मैं टूट चुकी हूं। कभी आत्महत्या करने का विचार आता है तो परिवार के लोगों को देख हिम्मत जवाब दे जाती है। चेहरे पर आने वाली हलकी सी हंसी पता नहीं उन लोगों को क्यों बुरी लगती है कि किसी न किसी तरीके से अतीत सामने ला देते है। उसी अतीत को सबके बीच शेयर करके मैं सहानुभूति नहीं बटोरना चाहती, मैं तो चाहती हूं कि वे लड़कियां जो अपने परिवार का सहारा बनना चाहती है बाजार में बैठे भूखे दरिंदों को पहचाने और उनके हाथों मेंं अपने आप को झूलने नहीं दे। मैं जालिमों को सजा देने जैसी बात पुलिस महकमे से इसलिए नहीं कहूंगी कि ज्यादातर काम उन्हीं की सरपरस्ती में होते है। अपनों पर जुल्म से छुटकारा पाने के लिए जब मीडिया को सहारा माना तो कड़वी सच्चाई ये निकलकर आई कि बगैर किसी सबूत के कुछ भी कर पाने में वे भी अपंग है। अपने शरीर को खिलौना बनने से पहले बचकर मैंने शायद गलती की। या उन शैतानों के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत क्यों कर रही हूं। ऐसे सवाल है जो मेरे जेहन में टनों वजनी पत्थर के माफिक लगते है।
मैं पूनम (बदला हुआ नाम)अपनी जिंदगी के कड़वे सच के बारे मेंं कुछ बताना चाहती हूं। जो कुछ मेरे साथ हुआ वो किसी और के साथ न हो। किसी के विश्वास को कोई हवस का शिकार बना दें तो दुबारा वो किसी पर चाहकर भी विश्वास नहीं कर पाती। मेरे साथ भी एक ऐसा ही हादसा हुआ है जिसके बाद मेरा किसी पर विश्वास करना मुश्किल हो गया।
कॉलेज में पढ़ते समय मैंने एक फेयर में जॉब प्लेसमेंट की सर्विस ली। उस फेयर के कुछ दिनों बाद मेरे पास जॉब के लिए फोन से ऑफर आया। फोन पर बात की तो एक शख्स बोला जिसने अपना नाम सन्नी बताया और बोला कि मैं मॉडलिंग करता हूं। जब मैंने उससे अपना नाम और नंबर की जानकारी देने की बात पूछी तो उसने बताया कि आपने जो फेयर में जॉब सर्विस के लिए अप्लाई किया था वहीं से जानकारी मिली है। मैंने सन्नी से फोन करने का कारण पूछा तो उसने बताया कि हम लोग शहर में एक ऑफिस खोल रहे है। जिसकी ऑपनिंग हो चुकी है। उसके लिए रिसेप्शन पर एक खूबसूरत लड़की चाहिए, आप जॉब करना चाहती है तो इंटरव्यू देने आ सकती है। मैंने इस बारे में सोच कर बता दूंगी कहा और फोन काट दिया। उसके बाद करीब-करीब रोजाना ही फोन आने लगा और एक बार इंटरव्यू देकर जॉब देख लेने के लिए समझाने लगा। आखिरकार मेंने इंटरव्यू के लिए उससे एड्रेस पूछा तो उसने जो बताया वो मुझे समझ नहीं आया। उसने मुझे कंवेंस करते हुए पोलो विक्ट्री पहुंचने के लिए कहा। उसने बताया कि वहीं से एक लड़की और इंटरव्यू के लिए आ रही हैं। दोनों को लेने के लिए मैं अपने स्टाफर्स को भेज दूंगा।
फोन बात करने के हिसाब से मैं पोलो विक्ट्री तिराहे पर पहुंच गई। करीब १५ मिनिट बाद एक लंबी सी पतली लड़की जो ज्यादा खुबसूरत तो नहीं थी, लेकिन बात करने में एक्सपर्ट सी लग रही थी। वहां पर आई। उससे इंटरव्यू के बारे में बातें की करीब १० मिनिट बाद उसके फोन पर सन्नी का फोन आया। उनके बात करने के करीब ५ मिनिट बाद ही एक लड़का मोटरसाइकिल से हमें लेने वहां पहुंच गया। हम दोनों उसकी बाइक पर बैठकर चल दिए। बाइक चलाने वाला युवक कई रास्तों से होता हुआ टोंक फाटक पुलिया की तरफ लेकर आया। पुलिया पार करके उसने अपनी मोटरसाइकिल रोक दी और दूर जाकर मोबाइल पर किसी से बात की। थोड़ी देर बाद वहीं पर एक और लड़का आया। मुझे उस लड़के को देखकर अच्छा नहीं लगा तो मैंने साथ वाली लड़की से वापिस लौट चलने के लिए कहा। लड़की ने समझाया कि यहां तक आ ही गए है तो इंटरव्यू देकर चलते है। मैं भी उसके इस तर्क को मान गई। हम दोनों पैदल वाले लड़के के साथ चल दिए। वो लड़का हमें किसी ऑफिस में ले जाने की बजाय किसी घर में ले गया। देखने में ही नजर आ रहा था कि जहां हमें लाया गया है वो किराए पर है। मुझे वहां का माहौल देखकर संदेह हुआ, लेकिन साथ में एक और लड़की होने के कारण डर नहीं लगा। घर में ऊपर की ओर एक कमरा बना था जिसमें तीन लड़के बैठे हुए थे। थोड़ी देर तो वो हमसे नहीं बोले, लेकिन कुछ देर बाद एक ने दूसरे को इशारा किया तो एक लड़का किसी काम की कहकर कमरे से बाहर निकल गया। उसके बाद मेरे साथ वाली लड़की को उसने कुछ इशारा किया। लड़की ने बगैर कुछ किए अंदर बने एक कमरे में चली गई और वहां से तीन ग्लास कोल्ड ड्रिंक बनाकर ले आई। हम तीन लोगों ने कोल्ड ड्रिंक साथ बैठकर ही पी और उसके बाद उस लड़की को इंटरव्यू देने के लिए अंदर ही बने एक और कमरे में भेज दिया। थोड़ी दूर बैठा हुआ सन्नी नाम का युवक मेरे करीब आकर बैठ गया। इस बीच मेरे साथ आने वाली लड़की अंदर वाले कमरे से बाहर आई और कुछ ढूंढकर वापिस कमरे में चली गई, उसने दरवाजा भी बंद कर लिया। मुझे अचानक सिर भारी लगने लगा, ऐसा लगा जैसे धरती हिल रही हो। इस बात की जानकारी मैंने सन्नी को दी। उसने हमदर्दी जताते हुए मुझे अपने हाथों में जकड़ लिया और अपनी तरफ खींचने लगा। उसके बाद जैसे-जैसे दिमाग ज्यादा घूम रहा था सन्नी मेरे कपड़े खोलने लगा। मैं अपने आप को उससे छुटकारा पाने के लिए हाथ पैर चला रही थी, लेकिन नशे में होने के कारण जैसे हिम्मत ही नहीं रही हो। मुझे अहसास हुआ कि मेरे कमर से ऊपर के सभी तरह के कपड़े उतार लिए गए है। मुझे ऐसा लगा कि वो मेरे नीचे के कपड़े भी खोल रहा है तो मैं अपने आपको नियंत्रित करने की कोशिश करने लगी। मुझे होश आता दिख रहा था, इस दौरान मेरे हाथों में कोल्ड ड्रिंक का खाली गिलास आ गया। जिसे मैंने उठाकर जोर से फेंक दिया, ऐसा लगा जैसे वो गिलास दरवाजे से टकराया हो। छीना झपटी करते हुए मेंरे काफी खंरोंचे भी आई। दरवाजे पर जोर की आवाज सुनकर मकान मालकिन ने कमरे का दरवाजा खोलने की आवाज लगाना शुरू कर दिया। जब कुछ देर गेट नहीं खोला मैंरी आवाजें जोर-जोर से आने लगी तो मकान मालकिन और उनकी बहु दरवाजे के बाहर आकर तेजी से हिलाया। ये मुझे याद नहीं की दरवाजा किसने खोला लेकिन मकान मालकिन और उनकी बहु ने मुझे संभाला और कपड़े पहनाए। जब उन्होंने मेरे साथ वाली लड़की के लिए पूछा तो मैंने अंदर वाले कमरे की ओर इशारा कर दिया। वो लड़की और उसके साथ दो लड़के कमरे से बाहर निकले। मैं नशे में होने के कारण कुछ बोल नहीं पा रही थी, मकान मालिक का लड़का नर्सिंग में था उसने मुझे थोड़ी देर सो जाने के लिए कहा। इस दौरान मकान मालकिन और उनकी बहु मेरे साथ थे। हरकत करने वाले लोग वहां से रफूचक्कर हो गए थे। जब नशा कम हो गया तो मकान मालिक और मालकिन दोनों ऑटो में मुझे मेरे घर तक छोडऩे आए। उन्होंने मुझे समझाया और उनके खिलाफ पुलिस में कार्रवाई करने के लिए भी कहा। जो नंबर मेरे पास थे, जो नाम पते उन्होंने बताए थे वे सभी फर्जी निकले। मैं उनके खिलाफ कुछ नहीं कर पाई। इस हादसे को ना मैं अपने घर पर किसी को बता पाई और ना ही मैं किसी को कहने की हिम्मत जुटा पाई। क्योंकि जितना मैंने सोचा है उस लिहाज से सवालों की बौछार मुझे ही गलत ठहरा रही थी। मैं इतनी परेशान हो गई थी कि मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता था। मानसिक तनवा की इंतहा ही थी कि मैें सोने के लिए नींद की गोलियां खाने लगी थी और सिगरेट भी पीने लगी थी। मैं इतना भयभीत थी कि मैंने सुसाइड करने की कोशिश की। इसके लिए मैंने अपने ही घरवालों से दूरियां बनानी शुरू कर दी। यहां तक की अपने आपको मैंने एक कमरे में समेट लिया था। उस समय मुझे लगा कि क्यूं लोग बेटी के जन्म पर खुशियां नहीं मनाते। यहां तक की कुछ लोग तो बेटी के जन्म होने से पहले ही प्रसव कराने वाली दाई से उसे मारने के लिए कह देते थे। आज भी जब अखबारों में इस तरह की खबर पढ़ती हूं तो सिहर जाती हूं। आखिर मेरा वो गुजरा कल जो मेरी जिंदगी का अंधेरा था मेरे सामने आज भी खड़ा दिखाई देता है। कभी तो मुझे लगता है कि कोई मेरे कॉल्स आज भी टेप कर रहा है। यहां तक की अनजाने नंबरों से मुझे फोन किए जाते है।

Thursday, April 1, 2010

एटीएस के सीक्रेट फंड को लेकर सीेक्रेट वार

आतंकवादियों और देश विरोधी ताकतों तक पहुंचने के लिए खुफिया सूचना तंत्र विकसित करने के लिए राजस्थान एंटी टेरेररिस्ट स्क्वॉड (एटीएस) के लिए बनाया गए सीक्रेट सर्विस फंड (एसएस फंड) को लेकर आजकल एटीएस में जबरदस्त खींचतान मची हुई है। वित्तीय वर्ष 2009-2010 में एसएस फंड के लिए मिले 35 लाख रुपए के खर्चे की यूटलाइजेशन रिपोर्ट 16 मार्च को पुलिस मुख्यालय को भेजी जा चुकी है, जबकि विभाग से भास्कर को छन-छनकर मिल रही खबर के मुताबिक इस मद में अब तक के खर्चे के बाद अभी 24 लाख रुपए बचे हैं, जिसके लिए सभी अधिकारियों से एडवांस में खर्चे के बाउचर भरकर मांगे गए है। जिस तरह से एटीएस की सब छोटी-बड़ी अंदरूनी बातें मीडिया तक पहुंच रहीं हैं, यह इसलिए भी चिंताजनक है कि अगर ऐसे ही खीचतान चलती रही तो आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगी।
एसएस फंड के मामले में किसने, कितने के बाउचर भर कर दिए और किसने नहीं भरे यह तो विभाग के अधिकारी जाने, मगर इसको लेकर एटीएस में पुलिस अधिकारी-कर्मचारी दो धड़े में बट गए हैं। एक धड़ा एसएस फंड से इस तरह से खर्च को लेकर पूरी तरह से इसकी मुखालफत करने में जुटा है तो दूसरा किसी तरह से मामला शांत कराने में लगा है।
मुखालफत करने वाले धड़े को लोग कहते हैं कि एसएस फंड का दुरुपयोग न हो इसके लिए आईजी एटीएस को तत्कालीन एडीजी एके जैन ने फंड के तिमाही आडिट के अधिकार दिए थे, जबकि वर्तमान एडीजी कपिल गर्ग ने दिसम्बर महीने में आईजी के एसएस फंड का तिमाही आडिट करने के बाद नया आदेश जारी करके आईजी का आडिट अधिकार छीन लिया। वे कहते हैं कि इससे फंड के दुरुपयोग की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। एसएस फंड का उपयोग आतंकियों के खिलाफ सूचनातंत्र विकसित करने के लिए किया जाना चाहिए, जबकि इसका इस्तेमाल आला अधिकारी फर्नीचर, काफी मशीन, टेलीवीजन, कार की लग्जरी बढ़ाने आदि में कर रहे हैं, इस पर रोक नहीं लगी तो आगे इसका दुरुपयोग और बढ़ेगा।
दूसरा धड़ा कहता है कि एसएस फंड अन आडिटेड फंड है। एटीएस के मुखिया जो भी कर रहे हैं, वे ठीक है। वे कहते हैं कि हो सकता है कि उनके काम करने का तरीका कानून सम्मत न हो लेकिन उनकी नीयत पर हमे कोई शक नहीं है।

किसने सूचना दी, मुझे बताइए

एटीएस एडीजी कपिल गर्ग से सवाल
फंड से खर्चे के मद में आपने एडवांस में वाऊचर भरने के निर्देश दिए है?
देखिए एटीएस में सब कुछ सीक्रेट है। इस बारे में कोई जानकारी नहीं दे सकता।
हमें आपके विभाग के लोगों ने ही बताया है कि आपने शाखा के सभी अधिकारियों को बुलाकर ऐसे निर्देश दिए है?
मैं कह चुका हूं कि ये सीक्रेट मसले है। आपको जो भी जानकारी दे रहा है वह गलत कर रहा है। आप उसकी जानकारी मुझे दीजिए।

ये जानकारी दे दीजिए कि फंड का कितना रुपया बचा है और कितना खर्च हुआ?
फंड में खर्च करने के बारे में तो सरकार भी नहीं पूछ सकती। एटीएस को सुरक्षा की जिम्मेदारियों को देखते हुए सूचना के अधिकार से परे रखा गया है। आप सूचना देने वाले की जानकारी दें तो बेहतर होगा, क्योंकि ऐसे लोगों की इस शाखा में जरूरत नहीं है। ऐसे व्यक्ति हमारी गोपनीयता कभी भी भंग कर सकते है। जिससे हमारी कार्यप्रणाली बाधित होगी।


मुझसे क्यों उगलवाना चाहते हैं
आईजी डॉ. आलोक त्रिपाठी से सवाल
क्या सभी अधिकारियों को एडीजी ने फंड की धनराशि इस्तेमाल के लिए एडवांस में वाऊचर के निर्देश दिए है?
देखिए फंड की जानकारी देने के लिए एडीजी अधिकृत है। इस बारे में आप उनसे ही बात कीजिए।
लेकिन हम तो आपसे यह जानना चाह रहे है कि आपने भी कोई वाऊचर भरा है क्या?
यह सीके्रट ब्रांच है। यहां की कोई भी, कैसे भी जानकारी नहीं दे सकता।

एटीएस का गठन पर तत्कालीन एडीजी एके जैन ने एसएस फंड का दुरुपयोग रोकने के उद्देश्य से इसके तिमाही आडिट की जिम्मेदारी आईजी एटीएस को करने के अधिकार दिए थे। आपको तो एसएस फंड के आडिट का अधिकार है?
इस पर मैं कुछ नहीं कह सकता।
मुझे जानकारी मिली है कि आपने 31 दिसम्बर को एसएएस फंड का आडिट किया था?
आप मुझसे जबरदस्ती कबूल करवाने का प्रयास क्यों कर रहे हैं?
नहीं मेरा ये इरादा नहीं है, अच्छा ये बता दीजिए कि क्या आईजी के आडिट करने के अधिकार खत्म कर दिए गए हैं?
आप तो सब जानते हैं, मुझसे क्यों कहलवाना चाहते हैं?
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सामने लाओ मै भी तो जानू
डिप्टी एसपी दिलीप शर्मा से सवाल
आपने खुद तो खर्चे का एडवांस वाऊचर भरा ही औरों से भी भरवाया है?
नहीं मैंने किसी से जबरन वाऊचर नहीं भरवाए। वैसे भी आजकल कोई किसी की कहां मानता है।
लेकिन इंस्पेक्टर्स का कहना है कि आपने जबरन भरवाए है?
ऐसा कोई कह रहा है तो सामने लाओ, मैं भी तो जानू कि जबरन वाऊचर क्यों भरे है।
चलिए ठीक है ये तो मानते ही हो कि आपने वाऊचर भरा है, क्या ये कानूनी तौर पर गलत नहीं है?
गलत और सही का फैसला करने का अधिकार अधिकारियों को है। इस बारे में आप उनसे ही बात करो।

एएसपी हेमंत शर्मा
आपने कितने के बाउचर भरें है?
मैं इस महकमे में नया आया हू्ं, मैं इस बारे में कुछ नहीं बता सकता। आप उच्चाधिकारियों से पूछे।

Sunday, March 28, 2010

समान कायदा, अधिकारी का बदला नजरिया

केस संख्या - मानसरोवर के आवास संख्या ३१/८२/११ में सार्वजनिक छत पर निर्माण कर कब्जा करने का प्रयास किया जा रहा था। २७ दिसम्बर, ०७ को नगर निगम कार्यालय में शिकायत की गई। आयुक्त के कहने पर निगम की विजिलेंस शाखा के जिम्मेदार अधिकारी और इलाके के जेईएन ने जांच कर हो रहे निर्माण को अतिक्रमण बताया।
केस संख्या - मानसरोवर के आवास संख्या ३१/८१/१२ में सार्वजनिक छत पर निर्र्माण की शिकायत आई तो टालने के लिए नगर निगम के जिम्मेदारों ने क्षेत्राधिकार आवासन मंडल का बताते हुए शिकायत वहां भेज दी। मंडल के उपआवासन आयुक्त ने मामले की जांच करवाकर निर्माण को अतिक्रमण मानते हुए नगर निगम को तोडऩे की जिम्मेदारी सौंप दी। निगम अधिकारियों ने मिलीभगत कर अतिक्रमण को अवैध निर्माण बताकर छत पर कब्जा करने वालों को बचा लिया।
कायदा समान, अधिकारियों की आंखों में फर्ख
सरकारी जमीन पर कब्जा करने को अतिक्रमण कहा जाता है, जबकि बगैर स्वीकृति के खुद की जमीन पर निर्माण करने को अवैध निर्माण। शहर के स्वरूप को बिगाडऩे वाले इन कारनामों को सरकार ने कानूनी तौर पर गलत माना है, लेकिन अफसरों की मिलीभगत से शहर में दोनों ही तरीके के काम धड़ल्ले से हो रहे है। शहर के बिगड़ रहे हालातों को देख सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही नगर निगम के मुख्य कार्यकारी अधिकारी से इस मामले में शपथ पत्र भी मांगा है।
केस स्टडी के दोनों मामलों पर नजर डाले तो दोनों एक जैसे ही मामले है लेकिन जिम्मेदार लोगों ने इसमें फर्ख पैदाकर अपनी बदनीयति उजागर कर दी। आवासन मंडल की मानसरोवर योजना में छत को सरकारी माना है। छत पर निर्माण करने को अतिक्रमण मान कर कार्रवाई की जाती है, लेकिन जहां अधिकारियों की निर्माण करने वालों से सैटिंग बैठ जाती है वहीं उस निर्माण को अवैध निर्माण कहकर अपराध को हल्का कर दिया जाता है। ...क्योंकि अवैध निर्माण को तो कंपाऊंड किया जा सकता है, लेकिन अतिक्रमण के मामले में तीन माह से तीन साल तक की कैद या 20 से 50 हजार रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान है। ऐसे में जिम्मेदार अधिकारी लोगों से मिलकर सरकारी छतों को खा रहे है।
पहले केस में जहां नगर निगम द्वारा राजस्थान नगर पालिका अधिनियम १९५९ की धारा २०३ के तहत अतिक्रमी को नोटिस दिया गया था जबकि नए कानून में समान मामलों में कार्रवाई के लिए राजस्थान नगर पालिका अधिनियम २००९ की धारा २४५ के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए थी। जिसमें अतिक्रमण करने के मामले तीन साल की सजा और २० हजार रुपए के जुर्माने का प्रावधान है। जिसे नगर निगम कम्पाउंड भी नहीं कर सकती है। परंतु अतिक्रमण और अतिक्रमी को बचाने के लिए उद्देश्य से गलत नोटिस दिया गया। इस तरह के कारनामों से जिम्मेदार अधिकारियों की लापरवाही तो दिखाई दे रही है जबकि राजस्थान उच्च न्यायालय की खंड पीठ ने शहर में हो रहे अतिक्रमण और अवैध निर्माणों के विरूद्ध स्वप्रेरित प्रसंज्ञान लेकर २० अक्टूबर २००४ को निर्णय सुनाया गया था, जिसकी भी सीधे तौर पर अवमानना है।
बचाने का रास्ता पार्टी ने असर नहीं लिया
नगर निगम की ओर से अतिक्रमण और अवैध निर्माण की शिकायत पर भेजे जाने वाले नोटिस में निर्धारित समय के बाद भी कार्रवाई करने की बजाय लीपापोती करते है। इसका उदाहरण है ज्यादातर नोटिसों के जवाब में निगम अधिकारियों ने पार्टी द्वारा नोटिस का असर नहीं लेने जैसे जुमले प्रयोग कर खानापूर्ति की जा रही है। जबकि जवाब नहीं आने पर निगम अतिक्रण को स्वयं हटाने उस पर होने वाले खर्चे का अधिकारी है।
फाइल की कहानी भी अजीब
सरकारी छत पर हो रहे निर्माण शिकायत की एक फाइल डीबी स्टार को मिली। फाइल को देखा तो उसकी कहानी भी अजीब है। तत्कालीन महापौर पंकज जोशी ने सरकारी छत पर किए गए अनाधिकृत निर्माण के विरूद्ध तत्काल कार्यवाही सुनिश्चित करने के लिए तत्कालीन विजिलिेंस कमिश्नर संग्रामसिंह को लिखा। संग्रामसिंह ने यह कहते हुए अपना बचाव किया कि मानसरोवर जोन आयुक्त ही इस पर कार्रवाई कर सकते है। मानसरोवर जोन आयुक्त ने ९ नवम्बर, ०९ में अतिक्रमण को अवैध निर्माण बताकर नोटिस जारी कर दिया और तीन दिन में हटाने का अल्टीमेटम दिया। उसके बाद २१ नवंबर को नोटिस का सायल द्वारा असर नहीं लिया गया लिखकर चालान पेश कर दिया।
मानसरोवर जोन आयुक्त ओपी गुप्ता से सवाल
मानसरोवर योजना की छत नगर निगम की नजर में क्या है। अवैध निर्माण या अतिक्रमण?
सरकार की नजर में छत तो सरकारी है, जबकि आवासी इसे अपनी बताते है।
आपके जोन में सेम नेचर के मामले में अलग-अलग पैमाना क्यों है?
इसकी मुझे जानकारी नहीं है। मैं तो अभी जनवरी में ही यहां आया हूं। जानकारी करने के बाद ही कुछ कह पाऊंगा।
लेकिन अवैध निर्माण और अतिक्रमण के खिलाफ कार्रवाई तो होती ही नहीं?
नहीं ऐसा नहीं है। शिकायत आने के बाद कार्रवाई जरूर होती है।
लेकिन दोनों ही मामलों में आज तक कोई तुड़ाई नहीं हुई?
इसकी फाइल देखकर ही कुछ कह सकता हूं

Monday, March 22, 2010

अब इस नृत्यांगना की बारी!

दो साल में अब तक रामबाग चौराहे पर दो दफा हो चुकी है चोरी
रामबाग सर्किल पर लगी तीज सवारी के स्कल्पचर्स में से दो दफा चोरी होने के बाद एक बार फिर एक और कलाकृति कभी भी चोरी हो सकती है। स्कल्पचर्स में सबसे आगे लगी नर्तकी की कलाकृति कभी भी चोरी हो सकती है। नर्तकी की कलाकृर्ति को खड़ा रखने के लिए लोहे के एंगल का आधार पूरी तरह से तोड़ दिया गया है। हालात यह है कि वर्तमान में मूर्ति केवल कुछ पत्थरों के सहारे टिकी हुई है ऐसे में चोर कब आकर इसे ले जाएंगे कोई जानने वाला नहीं है। सुरक्षा के नाम पर तैनात गाडर््स को भी सोने से फुर्सत नहीं है वहीं जेडीए उनके भरोसे बैठा चैन की नींद सो रहा है।
शहर के सौंदर्यन को लेकर रामबाग चौराहा, बजाज नगर और टोंक रोड पर विभिन्न मुद्राओं में कलाकृति लगवाई गई थी। अष्टधातु की बनी इन महंगी मूर्तियों के चोरी होने का सिलसिला शुरू से ही चल रहा है। रामबाग से सवार्धिक दो मूर्तियां चोरी हो चुकी है। इसके बावजूद जयपुर विकास प्राधिकरण के जिम्मेदार अधिकारियों ने सुरक्षा को लेकर कोई खास इंतजाम नहीं किए। डीबी स्टार को एक जागरूक नागरिक ने रामबाग चौराहे पर लगी एक कलाकृति चोरी होने का अंदेशा इस बात को लेकर जताया कि नर्तकी की कलाकृति केवल पत्थरों के सहारे टिकी हुई है, जबकि अन्य कलाकृति लोहे के एंगल से जुड़ी हुई है डीबी स्टार टीम ने माका देखा तो नजर आया कि स्कल्पचर्स सभी लोहे के एंगलों से जुड़े हुए है। सबसे आगे लगी नर्तकी की कलाकृति पत्थरों के सहारे खड़ी है। उसे थोड़ा सा हिलाया तो वह नीचे गिरने लगी। ऐसे में कलाकृति के चोरी करने के तरीके का आभास जरूर हो गया।
जानकारों ने बताया कि चोर लोहे के एंगल को धीरे-धीरे तोड़ते है और मूति को पत्थरों के सहारे खड़ा कर देते है। जब किसी को कोई संदेह नहीं होता तब मौका देख कलाकृति को उठा ले जाते है। चोर कलाकृतियों के उठा ले जाने का समय भी ऐसा रखते है कि भीड़ भी कम हो और सुरक्षा गार्ड को भी झपकी आती रहे। जब गार्ड की नींद खुलती हँै तो कलाकृति गायब नजर आती है।
जानकारी में सामने आया कि करीब अप्रैल, ०८ में लगी तीज की सवारी थीम बेस्ड कलाकृतियों में चोरों ने दो दफा हाथ आजमाए है। एक बार तो २४ जून, ०८ को चार कलाकृति व दूसरी बार ३१ दिसम्बर, ०८ को दो कलाकृति चोरी हो चुकी है। सुरक्षा एजेंसियों ने दोनो ही बार ज्योतिनगर थाने में चोरी का मामला दर्ज कराया।
मुकदमें में लगी एफआर
कलाकृति चोरी होने के दर्ज कुछ हाथ नहीं लगने के बाद सब इंस्पेक्टर एकता मीणा ने मामले में एफआर दे दी। मामले की जांच कर रही मीणा ने बताया कि जब मुल्जिम पकड़े जाएंगे तब केस खोलकर आगे की कार्रवाई को अंजाम दे दिया जाएगा।
और भी जगह यही हाल
बजाज नगर तिराहे पर लगी दो कलाकृतियां चोरी हो चुकी है। जबकि टोंक रोड आश्रम मार्ग पर दो दफा चोरी का प्रयास किया गया। एक प्रयास को तो करीब एक माह का समय ही हुआ है जब चोर कलाकृतियों को हिलाकर एंगल तोड़ रहे थे, तैनात गार्ड ने हल्ला मचा दिया।
जांच अधिकारी एकता मीणा से सवाल
रामबाग से कलाकृति चोरी के मामले में जांच कहां तक पहुंची?
उस मामले में तो कभी की एफआर लग चुकी है।
इतनी जल्दी एफआर देने का कारण?
जल्दी कहां, दो तीन महीने तलाश और जांच के बाद मामले में एफआर दी है। जांच में जब कुछ नहीं निकला तो कब तक उसे लेकर बैठे रहते ।
इसका मतलब जांच खत्म?
नहीं जब भी मुकदमे से संबंधित कुछ हाथ लगेगा तभी केस रिओपन हो जाएगा।
जांच किस आधार पर हुई?
मामला चोरी से जुड़ा है। जांच के लिए मूर्तिचोरों से पूछताछ की गई। कुछ जगहों पर मूर्तियां मिली, लेकिन वे चोर इस तरह की नहीं मंदिरों की मूर्तियां चुराते थे। इस कारण मामले में ज्यादा कुछ नहीं हाथ लगा।
जेडीए के एडिशनल चीफ इंजीनियर ललित शर्मा से सवाल
स्कल्पचर्स की सुरक्षा को लेकर क्या इंतजाम है?
२४ घंटें के लिए सुरक्षा गार्ड तैनात किए हुए है।
लेकिन वे तो सोते रहते है?
हमें क्या फर्ख पड़ता है। पहले की चोरी हुई कलाकृति की रिकवरी हमने सुरक्षा एजेंसी से की है।
तो क्या रिकवरी ही करते रहेंगे?
नहीं सुरक्षा को लेकर मार्च की रिव्यू बैठक में विचार किया गया थ। इसमें एसई को कलाकृतियों की सुरक्षा को लेकर प्रोजेक्ट बनाने को कहा गया है।
किस तरह का होगा प्रोजेक्ट?
ऐसा डिवाइस तैयार करने के लिए कहा गया है जिससे कलाकृतियों के हाथ लगाते ही अलार्म बज उठे। वैसे और भी संभावनाएं तलाशी जा रही है।

पानी हमारा, बिल जलदाय का

पिछले चार साल में महकमे ने कराया करीब दस लाख रुपए का बिल
गर्मी की दस्तक के साथ ही प्रदेश में पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है। राजधानी में जहां कई इलाकों में बिल देने के बाद भी पीने लायक पानी मयस्सर नहीं हो रहा वहीं महकमे के जिम्मेदार अधिकारियों की मेहरबानी से विद्याधरनगर स्थित सहयोग अपार्टमेंट में रहने वाले परिवार मुफ्त में पानी का उपयोग कर रहे है। लापरवाही का आलम यह है कि करीब साढ़े तीन सौ परिवारों को यह सुविधा पिछले चार साल से मुहैया है।
विद्याधरनगर में राजस्थान को-ऑपरेटिव हाउसिंग विभाग ने सहयोग अपार्टमेंट का निर्माण किया था। कर्मचारियों के लिए
कार्मिक विभाग ने इसे खरीदा और कर्मचारियों को आवंटन किया। इस अपार्टमेट में रहने वाले ज्यादातर सरकारी कर्मचारी होने के नाते मुफ्त की सेवा से किनारा करना चाहते है, लेकिन जलदाय महकमा ही इस मामले में पिछड़ रहा है। यहां तक की अपार्टमेंट के एक टावर में रहने वाले लोगों ने तो २०० रुपए प्रतिमाह सोसायटी के लोगों को जमा भी करवा रहे है ताकि जब कभी जलदाय विभाग एक मुश्त रिकवरी करतें तो देने में परेशानी नहीं आए। इसके बावजूद मुख्य सचिवप तक मामला पहुंच गया लेकिन न तो जलदाय महकमा ही राहत पा सका और न ही रहने वाले कर्मचारी। अपार्टमेंट के बोरिंग को खराब होने के बाद यहीं रहने वाले जलदाय महकमे के अधिकारियों ने २००६ में नया बोरिंग खोद डाला। अपार्टमेंट में बोरिंग होने से जलदाय विभाग ने इनको कनेक्शन नहीं माना, लिहाजा पेयजल लेने वाले लोगों से कोई वसूली नहीं की गई। चार सालों में जलदाय महकमे ने दस लाख से ज्यादा का बिजली बिल का भुगतान भी किया है और कर रहा है। दिनरात चलने वाले इस बोरिंग का विद्युत खर्च करीब २० हजार रुपए महीना आता है। यहां जलदाय महकमे के एईएन अजयसिंह, जेईएन श्योदानसिंह, टाइमकीपर भुवनेश पारीक भी रहते है।
तत्कालीन एईएन अजयसिंह से सवाल
कितने परिवार अपार्टमेंट में रह रहे है?
अपार्टमेंट में दोनों टावरों को मिलाकर साढ़े तीन सौ फ्लैट है।
यहां चार साल से मुफ्त का पानी वितरित किया जा रहा है?
हां...बिल्कुल महकमे में इस बात की जानकारी सभी को है।
लेकिन आप तो विभागीय अधिकारी है और जब कनेक्शन हुआ तो संबंधित जोन में ही तैनात थे?
मैं तैनात था। दरअसल ये योजना सरकारी कर्मचारियों के लिए कार्मिक विभाग ने पर्चेज की थी। तत्कालीन मुख्य सचिव ने अपार्टमेंट में रहने वालों को पानी मुहैया कराने की जिम्मेदारी तय की थी, मैंने वहां बोरिंग करवा दिया।
लेकिन मुख्य सचिव ने बिलों के पैसे लेने के लिए थोड़े ही मना किया था?
नहीं दरअसल हुआ क्या कि जब सोसायटी के लोगों ने कनेक्शन की फाइल लगाई तो लेवी के चार्ज में करीब साढ़े चार लाख रुपए लगा दिए। इतनी रकम देखकर सोसायटी वाले बदल गए। इस बात की जानकारी मुख्य सचिव को मिली तो उन्होंने असिस्टेंट सेक्रेट्री जीएडी और राजस्थान को-ऑपरेटिव हाउसिंग के एमडी को कमेटी में शामिल कर इसका हल निकालने की जिम्मेदारी सौंपी थी, लेकिन आज दिन तक कुछ नहीं हुआ।
अपार्टमेंट निवासी मुकेश मुदगल
आप लोग सरकारी पानी मुफ्त में पी रहे है?
बिल्कुल ...जलदाय महकमे की मेहरबानी है।
आप लोगों को नहीं लगता कि आप गलत कर रहे है?
क्या करे? कई दफा हमने पीएचईडी को इस बारे में बताया भी लेकिन उन्होंने भी अपना हाथ खड़ा कर दिया। ऐसे में हम भी परेशान है।
मुफ्त में पानी मिल रहा है, आपको क्या परेशानी?
हम तो सरकारी कर्मचारी है। कभी विभाग से एरियर आ गया तो परेशानी हो जाएगी इसलिए परेशान है।
तो आपने अधिकारियों से क्यों नहीं संपर्क किया?
हमने तो जलदाय विभाग के अधिकारियों से संपर्क किया था तो उन्होंने जवाब दिया कि हम अपार्टमंट में मेंटिनेंस नहीं कर सकते इसलिए पैसा भी नहीं वसूल सकते है। उसके बाद हम प्रिंसिपल सेक्रेट्री से मिले थे उन्होंने सात दिन में अधीक्षण अभियंता को सात दिन में रिपोर्ट देने के लिए निर्देश दिए थे, लेकिन लीपापोती के अलावा कुछ नहीं हुआ।
अधीक्षण अभियंता बी.कृष्णन से सवाल
सहयोग अपार्टमेंट में विभाग बिल की राशि क्यों नहीं वसूल रहा?
इस मसले पर जानकारी मुख्य सचिव स्तर पर है।
विभाग क्यों नहीं कार्रवाई कर रहा है?
मुख्य सचिव ने इस मसले पर वस्तुस्थिति की रिपोर्ट मांगी थी। हमने रिपोर्ट भेज रखी है।
कुछ कार्रवाई के निर्देश मिले?
नहीं अभी तो कोई निर्देश नहीं मिले। जैसा आदेश होगा कार्रवाई कर देंगे।

महल ले लो या पहाड़

एके कोठारी - एडिशनल डाइरेक्टर माइनिंग जयपुर जोन से सवाल
अवैध खनन को रोकने के लिए हाल ही में सरकार ने विभागीय बैठक के बाद घोषणा की। घोषणा में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सेटेलाइट से खनन पर नजर रखने और रोकने के लिए टॉस्क फोर्स बनाने की जानकारी भी दी। विभागीय सचिव गोविन्द शर्मा ने बताया कि योजना में करीब सात करोड़ रुपए खर्च होंगे। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि करोड़ों रुपए खर्चने के बाद भी क्या अवैध खनन रुक पाएगा। जब तक महीने की पगार पाने वाले लोग अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेंगे तब तक आंखों के सामने होने वाले इस अवैध खनन को सेटेलाइट और टॉस्क फोर्स तो क्या कोई भी नहीं रोक पाएगा।
सरकार ने अवैध खनन को रोकने के लिए नई योजना की घोषणा की है उससे आपको क्या फायदा होगा?
इससे हमें तो कोई फायदा नहीं होगा। हां ...हमें भी जानकारी मिल जाएगी कि कहां क्या चल रहा है।
फिर इस योजना की जरूरत क्यों पड़ी?
दरअसल मामला अलवर से जुड़ा है।
केवल अलवर के लिए ही?
हां...अरावली में अवैध खनन की लगातार शिकायत बढ़ रही थी। मामला वन विभाग से भी जुड़ा हुआ है।
इससे क्या फायदा होगा?
सुप्रीम कोर्ट ने अरावली का स्टेटस जानने के लिए सरकार से जानकारी देने व समझाने के लिए कहा था। चूंकि अवैध खनन के कारण मौके पर तेजी से बदलाव हो रहा है इसलिए सरकार ने सेटेलाइट से फोटोज लाने के लिए कहा था।
इसको कौन संभालेगा?
माइनिंग की तो बस की बात नहीं है। जानकारी में आया कि साइंस एंड टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंंट को यह जिम्मेदारी सोंपी है।
सेटेलाइट से अवैध खनन पर कैसे पार पाएंगे?
इससे कोई अवैध खनन थोड़े ही रुकेगा। ये तो सुप्रीम कोर्ट को अरावली का स्टेटस दिखाने और सरकार की आगे की प्लानिंग के लिए है।
जयपुर में क्या अवैध खनन नहीं हो रहा?
ज्यादातर माइंस तो हमने ही ठेके पर या लीज पर दे रखी है। अवैध खनन की मुझे जानकारी नहीं है।
सेटेलाइट से आपको भी तो सुविधा हो जाएगी?
काहे की सुविधा? सेटेलाइट से तो तीन महीने पुराने पिक्चर आएंगे। उन्हें भी बैंगलोर से खरीदना पड़ेगा।
फिर टॉस्क फोर्स भी तो बन रही है?
उसका भी ज्यादातर इलाका अलवर ही होगा, हमें तो पुलिस के भरोसे ही काम करना पड़ता दिख रहा है।
लेकिन आपकी भी तो विजिलेंस विंग है?
काहे की विंग करीब-करीब सारे पद तो खाली पड़े है।
उनको भरने के लिए आपने अधिकारियों को नहीं लिखा?
ये जानकारी तो सबको है। जब तक सरकार नहीं चाहे कुछ नहीं हो सकता।
आपने ज्यादातर माइंस लीज पर दे रखी है, फिर तो पहाड़ किताबों में ही रह जाएंगे?
इस बारे में तो सभी एक पक्ष से सोचना पड़ेगा। क्योंकि माइनिंग भी पब्लिक की जरूरतों के पीछे ही हो रही है।
लेकिन आपकी जिम्मेदारी नहीं है इनको बचाना?
या तो महल ही बना लो या पहाड़ ही सहेज लो। दोनों काम एक साथ नहीं हो सकते।
लेकिन जो सामने ही अवैध खनन हो रहे है उनको भी क्या सैटेलाइट से ही रोकोगे?
नहीं ऐसा बहुत कम हो रहा होगा, इस बारे में इलाकाई इंजीनियर्स ही कुछ बता सकते है।
आप लोगों की जिम्मेदारी नहीं बनती की अवैध खनन को रोकें?
हमारे पास इसको रोकथाम वाली विंग की पोस्टें खाली पड़ी है।
तो क्या देखते रहोगे?
नहीं तो ऐसी जो हो सकता है कार्रवाई करेंगे। अब तो सरकार इसके लिए टॉस्क फोर्स बना रही है।

Sunday, March 21, 2010

लापरवाही का खेल, सुरक्षा फेल

सामुदायिक केन्द्र की छत से हवाई अड्डे में मारी जा सकती है सेंध
देश में लगातार हो रही आतंकी घटनाओं के बाद भी जयपुर एयरपोर्ट की सुरक्षा भगवान भरोसे है। जब भी कहीं आतंकी हमला होने सूचना मिलती है तो एयरपोर्ट के प्रवेश द्वार पर जरूर सुरक्षा के कुछ इंतजाम दिखाए जाने की पहल होती है, लेकिन एक जागरूक पाठक ने डीबी स्टार को रास्ते की जानकारी दी जो सुरक्षा के लिहाज से कतई उचित नहीं है। सुरक्षा का दावा करने वाले विमानपत्तन प्राधिकरण के अधिकारी को तो इसकी जानकारी ही नहीं है। जो कैमरे और सुरक्षाबलों तैनात किए है उनकी भी निगाहों से दूर है यह जगह। विमानों के रन-वे में बैकडोर एंट्री की ये सुविधा शहर की जिम्मेदारी संभालने वाली नगर निगम ने ही मुहैया कराई है। डीबी स्टार टीम ने मौके पर जाकर देखा कि आतंकी तत्त्वों के लिए घटना को अंजाम देना यहां से कितना आसान है।
नागरिक नगर के साथ ही शंाति नगर बसी हुई है। ज्यादातर मकान एयरपोर्ट की दीवार से कुछ ही दूरी पर बने है, जमीन को कब्जाने की नीयत से सभी मकान मालिकों ने एयरपोट्र की दीवार तक अपना अधिकार जमा रखा है। दीवार के सहारे कुछ जगहों पर पड़े मलबे से अंदाजा हो जाता है कि कभी कार्रवाई जरूर हुई होगी। एक जगह एयारपोर्ट से सटी गुलाबी रंग में बनी इमारत बाहर लिखा था सामुदायिक केन्द्र। दरवाजे खुले पड़े थे, सीढिय़ों से इमारत के छत पर जाने की सुविधा थी। न कोई रोकने वाला था और न कोई टोकने वाले। आसानी से छत पर गए छत से एक छलांग दूरी पर एयरपोर्ट। शंाति नगर से पिछले कई समय से मकानों को हटाने की कवायद हो रही थी। एयरपोर्ट अथॉरिटी का कहना था कि सुरक्षा के लिहाज से मकानों को हटाना ही होगा, उधर नगर निगम ने सुरक्षा दरकिनार कर करीब तीन साल पहले एक सामुदायिक केन्द्र का निर्माण कर दिया। नगर निगम के एक जिम्मेदार अधिकारी का कहना है कि नगर निगम तो वहां ये सुविधा नहीं बनाना चाहता था, लेकिन स्थानीय विधायक कालीचरण सराफ ने अपने कोटे से करीब दस लाख रुपए देकर एयरपोर्ट की दीवार से सटी करीब पांच सौ वर्ग गज जमीन पर सामुदायिक भवन बनाने को मंजूरी दी थी। इस भवन निर्माण के दौरान कांग्रेस की तत्कालीन पार्षद डॉ.अर्चना शर्मा ने विरोध जताया था। पार्षद का विरोध था कि थोड़ी बहुत जमीन पर बनने वाले इस कम्यूनिटी हॉल का कोई उपयोग नहीं हो सकेगा। उसके बावजूद नगर निगम ने सुरक्षा को भेदने वाली इमारत का निर्माण कर दिया।
जिम्मेदार सोते रहे
उधर, विमानपत्तन प्राधिकरण की ओर से सुरक्षा को लेकर सरकार में कई पत्राचार होने के बावजूद इस मसले पर प्राधिकरण ने कोई आपत्ति नहीं जताई। चैन की नींद सोने वाले प्राधिकरण के जिम्मेदार अधिकारियों ने समय रहते इस इमारत को बनने से नहीं रोका। यहां तक की सुरक्षा का दावा करने वाले एयरपोर्ट के निदेशक तो एयरपोर्ट से सटी ऐसी किसी भी इमारत के बने होने से अनजान है।
एयरपोर्ट निदेशक अनुज अग्रवाल से सवाल
एयरपोर्ट की दीवार से सटे इमारतों से सुरक्षा को खतरा नहीं है?
नहीं...एयरपोर्ट की चारदीवारी काफी उंची है। इससे मकानों को कोई खतरा नहीं है।
लेकिन नगर निगम के बनाए गए कम्यूनिटी हॉल की छत तो एयरपोर्ट की दीवार के बराबर है?
इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है।
सुरक्षा को लेकर पिछले तीन साल में कई दफा काफी हो हल्ला मचा और आपको इस बारे में कोई जानकारी नहीं है?
फिलहाल आऊट ऑफ स्टेशन हूं। इस बारे में कल बात करेंगे।
...एयरपोर्ट की दीवार की ऊंचाई कितनी होगी और सुरक्षा को लेकर क्या इंतजाम है?
एयरपोर्ट की दीवार १० फीट ऊंची है और बाकी जानकारी कल ही दे सकता हूं।
ऐसा कहकर उन्होंने फोन काट दिया
नगर निगम के मुख्य अभियंता डीएल भाखर से सवाल
सामुदायिक केन्द्र एयरपोर्ट की दीवार से सटाकर क्यों बनाया गया?
इसकी मुझे जानकारी नहीं है। मेरे नगर निगम में आने से पहले ये बन गया था।
लेकिेन क्या ये पैसों का दुरूपयोग नहीं है?
ये तो सुरक्षा के लिहाज से भी सही नहीं है। इसकी पूरी जानकारी संबंधित जोन एक्सईएन ही बता सकते है।

Wednesday, March 10, 2010

सरकार ने भी अपना पल्ला झाड़ा

गंदे नालों के पानी से उगाई सब्जियों से लोगों की सेहत भले ही बिगड़ रही हो, लेकिन प्रशासन की तरह ही सरकार को इससे कोई सरोकार नहीं है। दुख दर्द को बांटने की दुहाई देने वाले नुमांइदे भी इस जिम्मेदारी से पल्ला झाडऩे में लगे है। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या ऐसे ही लोग जहरीली पैदावार से होने वाली बीमारियों से दम तोड़ते रहेंगे। डीबी स्टार टीम ने गंदे नालों से पैदा होने वाली फसलों से फैलती बीमारियों और जिम्मेदार लोगों द्वारा एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराने की आदत को उजागर किया था। जब इस बारे में चुने गए और जिम्मेदार पदों पर बैठे मंत्रियों से बात की गई तो उन्होंने भी इस को दूसरे विभागों पर टालना उचित समझा। संवेदनशील मसले पर प्रशासन के टालू रवैए से परेशान कुछ लोगों ने अपनी और से कदम उठाना शुरू किया है। राष्ट्रीय सेवाकर्मी जितेन्द्र शर्मा ने बताया कि लाखों रुपए का वेतन और सुख सुविधा इन अधिकारियों को आखिर क्यों कर दी जा रही है, जब उन्हें ही अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं है तो। उधर, नागरिक अब्दूल हफीज ने बताया कि गैर जिम्मेदार लोगों पर वे तो कानूनी कार्रवाई करने की तैयारी कर रहे है।
कृषि मंत्री हरजीराम बुरड़क
खेतों में जहरीली पैदावार हो रही है, इसको रोकने की जिम्मेदारी किसकी है?
इस मसले पर तो मैं भी दुखी हूं। इस मामले में उद्योग विभाग को जिम्मेदारी लेनी चाहिए। कानून होने के बाद भी फैक्ट्री संचालक पानी को साफ कर नालों में नहीं छोड़ रहे है।
कैसा कानून?
ज्यादा तो मुझे जानकारी नहीं है, लेकिन सुना है कि गंदे पानी को सार्वजनिक नहीं छोड़ा जा सकता।
आप तो सरकार है, फिर क्यों नहीं कानून की पालना करवाते?
कृषि विभाग को तो सलाह देने का काम है, किसी को पाबन्द करने का नहीं है। वैसे इसकी जिम्मेदारी तो पोल्यूशन कंट्रोल बोर्ड की भी बनती है।
लेकिन वे भी तो जिम्मेदारी होने की मनाही कर रहे है?
बोर्ड में मुखिया पद पर आईएएस को लगा रखा है, उनका काम ही यही है अब वे मना कर रहे है तो कोई क्या कर सकता है।
स्वास्थ्य मंत्री एमादुद्दीन खां
गंदे नालों से उगी सब्जियों से लोगों की सेहत पर खिलवाड़ हो रहा है?
मैं तो चुनावों की जिम्मेदारी से हाल ही मुक्त हुआ हूं। मुझे जानकारी नहीं की क्या बाजार में क्या खबरें है।
लेकिन गंदे नालों से पैदावार हो रही है ये तो जानकारी होगी ही?
हां...पहले जलमहल के आसपास खेती होती थी, लेकिन लोगों ने विरोध किया तो उसे बंद करवा दिया। अब कहां खेती होती है मुझे कोई जानकारी नहीं है।
लोगों की सेहत बिगड़ रही है आपको जानकारी नहीं?
चुनाव निबटाकर आ रहा हूं, मामले की जानकारी करवाता हूं।

जहरीली पैदावार का कौन जिम्मेदार

जेके लॉन में बच्चे के पेट का ऑपरेशन कर सैंकड़ों कीड़े निकाले गए, चिकित्सकों ने इस तरह के पेट में कीड़े होने का गंदे नालों से उगी पैदावार को अहम कारण बताया। बच्चे के पेट में कीड़े कोई पहला मामला नहीं है, ज्यादातर लोग इस तरह की बीमारी के शिकार हो रहे है। उसका कारण भी साफ है। शहर के बाहरी इलाकों में गंदे पानी के नालों में बहने वाले पानी का उपयोग सब्जियां उगाहने में कर रहे है। चिकित्सक लोगों को ऐसी सब्जियों से परहेज करने की जानकारी व दवाईयां देकर अपना पल्ला झाड़ लेते है। कई दफा विभिन्न इलाकों में दूषित पानी से होने वाली पैदावार की जानकारी भी प्रकाशित हुई, लेकिन जिम्मेदार लोग एक दूसरे पर जिम्मेदारी का ठीकरा फोड़ अपना दामन बचाने में जुटें रहे। किसी ने भी आगे बढ़कर इस जहरीली पैदावार रोकने को अपनी जिम्मेदारी नहीं माना। नतीजा कुछ हो हल्ला मचने के सिवाय बीमारी की इस पैदावार पर कोई असर नहीं पड़ा। एक बार फिर बच्चे के पेट में कीड़ें की खबर आई तो सवाल खड़ा हुआ कि आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? डीबी स्टार ने पैदा करने वाले किसानों से लेकर लगभग उन सभी विभागों के जिम्मेदार अधिकारियों से पड़ताल की तो सामने आया कि एक दूसरे पर तो सब आरोप लगा रहे है, लेकिन जिम्मेदारी उठाने को कोई तैयार नहीं है। किसान वर्ग जहां साफ पानी नहीं होने पर नालों के पानी को काम में लेने की बात कहते है तो प्रशासन इसे पुलिस थाने का मामला बता रहा है। अपना हलक बचाने के लिए ठोस तर्क देने से भी नहीं चूक रहे।
कुलदीप रांका कलेक्टर से सवाल
गंदे नालें के पानी से सब्जियां पैदा की जा रही है, इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
निजी क्षेत्र में इस तरह की पैदावार होती है। इसके लिए तो थाने में एफआईआर ही दर्ज होती है।
तो ये एफआईआर कौन दर्ज कराएगा?
कोई भी करा सकता है, जिसको इसकी प्रॉब्लम हो।
क्या गंदे नालों से उगी सब्जियों पर रोक लगाने में सरकार और प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं है?
एक बार मामले की इसकी जांच कराने के बाद ही कुछ बता सकता हूं।
शहर के बाहरी क्षेत्रों में गंद नालों के पानी से सब्जियां उगाई जा रही है, आपको जानकारी नहीं है क्या?
देखिए एक बार में इसकी जानकारी ले लूं, उसके बाद ही इस बारे में कुछ कह पाऊंगा।
के.बी. शर्मा, संयुक्त निदेशक मुख्यालय हॉर्टिकल्चर
गंदे नालों से उगाई सब्जियों पर पाबंदी नहीं लगाने के पीछे कौन जिम्मेदार है?
इसके लिए जेडीए जिम्मेदार है, क्योंकि जहां गंदे नालों से सब्जियां पैदा हो रही है वो इलाका जेडीए रीजन में आता है। थोड़ा रुककर ...आप ऐसा करें ज्यादा जानकारी के लिए डिप्टी डाइरेक्टर से सम्पर्क करें, मैं तो हाल ही में आया हूं।
सीताराम जाट, डिप्टी डाइरेक्टर, हॉर्टिकल्चर डिपार्टमेंट
गंदे नालों से उगाई सब्जियों पर पाबंदी आपका विभाग क्यों नहीं लगा रहा?
कार्रवाई करने के हमारे पास कोई अधिकार ही नहीं है।
लेकिन ये तो आपके विभाग का ही काम है?
हमारे पास तो प्रमोशन का काम है, इंस्पेक्टरी और रेगूलेटरी पावर हमारे पास नहीं है।
आपको जानकारी होगी की ये पावर किसके पास है?
नहीं इस बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है।
बीएल बजाज, सीएमएचओ, जयपुर प्रथम से सवाल
दूषित पानी से सब्जियों की पैदावार रोकने के लिए कौन जिम्मेदार है?
इसकी जानकारी हमें नहीं है, हां...इतना जरूर पता है कि कम से कम स्वास्थ्य विभाग जिम्मेदार नहीं है। क्यों आपकी जिम्मेदारी क्यों नहीं है?
हमारा काम तो आने वाले मरीजों के सेहत सुधारना है। वैसे दूषित पानी का मसला है तो पोल्यूशन कंट्रोल बोर्ड की जिम्मेवारी बनती है। उसे इस बारे में सोचना चाहिए।
वीएस सिंह, चैयरमेन, स्टेट पोल्यूशन कंट्रोल बोर्ड से सवाल
दूषित पानी से सब्जियों की पैदावार रोकने के लिए कौन जिम्मेदार है?
जाहिर है कि प्रशासन ही जिम्मेदार होगा।
प्रशासन क्यों जिम्मेदार है?
यदि पानी किसानों को साफ मिलेगा तो वे गंदा पानी क्यों यूज करेंगे। साफ पानी उपलब्ध करवाना प्रशासन की जिम्मेदारी है।
फिर आपकी क्या जिम्मेवारी है?
हमारा काम तो क्षेत्र में वातावरण में फैली दूषित मात्रा की जानकारी एकत्र कर प्रशासन को देना है। वातावरण के प्रदूषण की मात्रा को कब और कैसे कम करना है इस बारे में तो प्रशासन को तय करना है।

मोनो रेल क्या है खेल?

शहर की यातायात सुविधाओं में बेहतरी का सपना दिखाते हुए सरकार ने मोनो रेल चलाने का ढिढोंरा पीटा, दावे किए गए। शुरुआत में लगा कि जैसे सरकार ने प्लानिंग करके योजना को मंजूर किया है। जब इसकी जानकारी की गई तो चौंकाने वाली बात यह थी कि मोनो रेल चलाने की जिम्मेदारी उस मलेशियन कंपनी को दी जा रही है जिसने एक मीटर भी पटरी कहीं नहीं डाली। ऐसे में गुलाबीनगरी में मोनो रेल चलने के मंसूबों पर पानी सा फिरता दिखाई दे रहा है। सरकार ने मलेशियन कंपनी एमरेल इंटरनेशनल एसडीएन बीएचडी कंपनी को प्रोजेक्ट का काम शुरू करने की हामी तो भर दी, लेकिन उसको खुद इस बात का भरोसा नहीं है कि कंपनी काम कर पाएगी। लिहाजा उन्होंने कंपनी को पहले जमीन देने की बजाय डीपीआर बनाने की स्वीकृति दे दी। इस बारे में अफसरों का कहना है कि

चीनी कंपनी देखें तो हो मोनो रेल फाइनल
चेन्नई की कंसलटेंसी गाइडलाइन के एमडी और मलेशियन कंपनी एमरेल के रिप्रजेंटेटिव केबी अशोकन से सवाल
कंपनी का मोनो रेल प्रोजेक्ट कहां-कहां चल रहा है?
कंपनी का मोनो रेल प्रोजेक्ट फिलहाल कहीं नहीं चल रहा।
तो फिर जयपुर में कैसे मोनो रेल चलाएंगे?
दरअसल हमारे पास एक्सपोजर है। जबकि मोनो रेल चाइना कंपनी चीन सीएनआर कोरपोरेशन लिमिटेड चलाएगी। इसलिए हम चला लेंगे।
शहर में कंपनी डीपीआर बना रही है वो क्या कंपलीट हो गई?
हां...करीब पचास फीसदी काम पूरा हो गया है।
तो क्या उम्मीद की जाए कि कब तक शुरू हो जाएगी जयपुर में मोनो?
अभी इसकी गांरटी नहीं दे सकते। दरअसल चाइनीज कंपनी ने तो अभी साइट देखी ही नहीं तो शुरू होने की कैसे जानकारी दे सकते है।
इसका मतलब?
यही की चाइनीज कंपनी साइट और डीपीआर देखेंगी और फैसला करेगी तभी जयपुर में मोनो के शुरू होने के बारे में कुछ कह सकते है।
सीधे कहे तो अभी तो कुछ हुआ ही नहीं है?
नहीं हम डीपीआर बनाकर चीनी कंपनी को यहां का विजिट कराएंगे। उनकी हरी झंडी मिलते ही इस पर काम शुरू हो जाएगा।
मलेशियन कंपनी ने दुनियाभर में कुछ किया ही नहीं तो कैसे कह सकते है जयपुर में मोनो रेल चला देंगे?
दरअसल मलेशियन एम रेल के पास एक्सपोजर है, चीनी कंपनी से मिलकर योजना अमल में लाई जाएगी।
बदलते सुर
नगरीय विकास विभाग के सचिव जीएस संधू से सवाल
मोनो रेल प्रोजेक्ट किस दशा में है?
हमें भी खबरों से ही जानकारी मिल रही है कि कंपनी डीपीआर बनवा रही है।
लेकिन प्रोजेक्ट तो आपका विभाग ही डील कर रहा है?
हां..लेकिन हमने जिम्मेदारी स्वायत्त शासन सचिव को सौंप रखी है वे ही इसकी पूरी जानकारी दे पाएंगे।
हमें जानकारी मिली है कि कंपनी के पास प्रोजेक्ट से रिलेटिड कोई भी एक्सपीरियंस नहीं है उसके वाबजूद सरकार इतनी बडी जिम्मेदारी सौंपने को तैयार दिख रही है?
डीपीआर तो बनने दो फिर देखते है कि क्या हो सकता है।
स्वायत्त शासन विभाग सचिव आर.वेंकटेश्वर
मोनो रेल प्रोजेक्ट कहां तक पहुंचा?
अभी डीपीआर का काम चल रहा है?
डीपीआर का कितना काम पूरा हो चुका है?
दरअसल, प्रोजेक्ट लाने वाले कुछ दिनों पहले आए थे। तब हमने उनको पहले डीपीआर बनाने की बात कही थी। उसके बाद हमारा आपस में कोई सम्पर्क नहीं हो पाया।
हमें जानकारी मिली है कि कंपनी के पास प्रोजेक्ट से रिलेटिड कोई भी एक्सपीरियंस नहीं है उसके वाबजूद सरकार इतनी बडी जिम्मेदारी सौंपने को तैयार दिख रही है?
किसने कहा है कि हम जिम्मेदारी सौंप रहे है। दरअसल हमने तो प्रोजेक्ट से संबंधित डीपीआर बनाने के लिए कहा है। सब कुछ डीपीआर बनाने के बाद तय होगा। डीपीआर से तो हमें ही जानकारियां मिलेगी, सब कुछ सही रहा तो किसी और कंपनी को इस कार्य के लिए बुलाया जा सकता है।
जानकारों का कहना है कि मलेशियन कंपनी के शहर में प्रोजेक्ट लाने के पीछे की कहानी कुछ और है। दरअसल कंपनी यहां मोनो रेल के डिब्बे बनाने के नाम पर बहुत बडी जमीन चाहती थी। सरकार की जमीन देने को लेकर उत्सुकता नजर नहीं आने से कंपनी भी दूसरा रास्ता तलाश रही है। अधिकारी भी इस बात से वाकिफ है कि बगैर कुछ लिए कोई भी कंपनी इतने बडे प्रोजेक्ट को बगैर अनुभव के कैसे हाथ डालेगी। इसके पीछे जरूर मकसद कुछ और तो है।

Monday, March 8, 2010

डीजल-डिपो रोडवेज का,कमाई कंपनी की

- अप्रैल से शुरू होनी है योजना, फिलहाल नहीं है कोई चालक-परिचालक
- रोडवेज के सीएमडी को अध्यक्ष बनाकर ले रहे है फायदा
- डीजल और डिपो रोडवेज के, कमाई कंपनी की
जयपुर सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विस लिमिटेड अप्रैल से शहर में ४०० बसें चलाने जा रही थी, लेकिन मार्च शुरू हो गया पर २९ बसें ही तैयार हो पाई है। ऐसे में कर्ज लेकर खरीदी गई नई बसों से शहरी यातायात में कोई फायदा नहीं होगा। दीगर है कि अभी भी इन बसों को चलाने वालों का अता-पता है और न ही उनके रख रखाव की कोई जगह। लिहाजा सांगानेर आगार में इन दिनों बीआरटीएस बसों ने कब्जा जमा रखा है।
सिटी ट्रांसपोर्ट के लिहाज से जेडीए और जयपुर नगर निगम की बनाई गई संयुक्त कम्पनी जयपुर सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विस लिमिटेड की ओर से ४०० बसें चलानी है। इसके लिए जेसीटीएसएल को जवाहरलाल नेहरू अरबन रिन्यूअल मिशन के तहत केन्द्र सरकार से उधारी पर पैसा मिला है। पूर्व योजना के तहत अप्रैल से शुरू होने वाली बसों के लिए कंपनी ने फिलहाल कोई तैयारी नहीं की है। यहां तक की अभी भी यह तय नहीं हो पाया है कि इन बसों में चालक-परिचालक कौन होंगे? सवाल यह खड़ा होता है कि यदि इन बसों में रोडवेज के ही कर्मचारियों को लगाया जाना है तो अब तक इस बारे में किसी भी तरह का कोई एग्रीमेंट क्यों नहीं हुआ। वैसे फिलहाल कंपनी के चैयरमेन पीके देब जो कि रोडवेज के सीएमडी भी है ने कंपनी की बसों के रख रखाव के लिए रोडवेज की जगह को उपयोग में लेने की छूट दे रखी है। इन बसों को चलाने के लिए कंपनी के चार ओहदेदारों को जिम्मेदारी दे रखी है, जिसमें एक तो रोडवेज के सीएमडी को चैयरमेन, डीआईजी मालिनी अग्रवाल को एमडी, प्रीति माथुर को सचिव और रिटायर्ड रोडवेज अधिकारी आरएस नवलकर को एडवाइजर की जिम्मेदारी सौंपी है। फिलहाल जो बसें तैयार हो गई है उन्हें रोडवेज के सांगानेर आगार में खड़ी किया हुआ है। यहां तक की तीन चार दफा इन बसों में डाला गया डीजल भी रोडवेज के पेट्रोल पम्पों से ही लिया गया है। कर्मचारियों में असमंजस है कि ये डीजल इन बसों में किसके खाते में डाला जाएगा। मामले में जिम्मेदारों से बात की तो उन्होंने साफ कहा कि नई बसों का संचालन तो कंपनी ही करेगी। इससे होने वाली कमाई भी कंपनी की जिम्मेदारी रहेगी। रोडवेज के चालक-परिचालक व डिपो के उपयोग के बदले कुछ उन्हें भी दे दिया जाएगा।
नहीं मिलेगी जाम से राहत
चारदीवारी में पार्किंग की समस्या है। इसमें चलने वाली रोडवेज की सिटी बसों की लंबाई के कारण जाम लगना आम बात हो गई है। ऐसे में जेसीटीएसएल कंपनी की ओर से चलने वाली बसों की लंबाई रोडवेज से भी ज्यादा होने से परेशानी में इजाफा ही होगा। सांगानेर आगार प्रबंधक संचालन हेमेंद्र माथुर ने बताया कि रोडवेज की बसों की अधिकतम लंबाई साढ़े ३३ फिट है, जबकि कंपनी बसों की लंबाई ३८ फिट है। रोडवेज की बसों से कंपनी की चौड़ाई भी २ फिट ज्यादा है।
रोडवेज के सीएमडी और जेसीटीएसएल के चैयरमेन पीके देब से सवाल
जेसीटीएसएल की नई बसें कब से शुरू कर रहे है?
हमारा तो प्लान था कि अप्रैल से सभी रूट्स पर शुरू कर देंगे, लेकिन अभी करीब ५० बसें ही मिल पाएगी। इसलिए वैकल्पिक मार्गों पर विचार कर रहे है।
रोडवेज का इसमें कोई शेयर है?
नहीं रोडवेज का कोई शेयर नहीं है।
तो फिर बसों को चलाएगा कौन ?
रोडवेज के चालक-परिचालक होंगे। खर्च और कमाई जेसीटीएसएल की होगी।
रोडवेज क्यों अपने स्टाफ को दूसरे को सौंपेगा। इससे घाटा किसकी जिम्मेदारी होगा?
रोडवेज का कंपनी से एक एग्रीमेंट हुआ है। रोडवेज के चालक परिचालक पर जो खर्च आएगा उसमें पांच प्रतिशत बढ़ाकर कंपनी से वसूला जाएगा। टिकिट और विज्ञापनों से होने वाली कमाई कंपनी की होगी।
मौजूदा बसें ही सड़कों पर जाम लगा देती है तो नई बसें तो पांच फिट ज्यादा लंबी है। परेशानी नहीं आएगी?
मुझे नहीं लगता कि लंबाई की वजह से जाम लगता है। लोगों को नई बसें भी तो मिलेगी।
बसों के लिए डिपो और इंस्फ्रास्ट्रक्चर रोडवेज क्यों देगा?
रोडवेज की बसें कंडम हो चुकी है। नई बसें शहर में चलनी भी चाहिए। कंपनी किसी और से इंस्फ्रास्ट्रक्चर लेती तो रोडवेज से ले लेगी तो क्या फर्ख पड़ेगा। वैसे भी दोनों का मकसद यात्रियों को सुविधा उपलब्ध कराना है।
चारदीवारी में परेशानी नहीं आएगी?
रोडवेज बगैर स्टैंड के रुक जाती थी, लेकिन ये बसें अपने निर्धारित स्टैंड पर ही रुकेगी। इससे मुझे नहीं लगता कि कोई प्रॉब्लम आएगी।
अगर आप रोडवेज के सीएमडी नहीं होते तो भी कंपनी की यही बात मान लेते?
दोनों का मकसद पहले शहरवासियों को सुविधाएं देना है। घाटा और फायदा बाद की बातें है।
सवालों के घेरे में ट्रांसपोर्ट सर्विस लिमिटेड
जयपुर सिटी ट्रांसपोर्ट सर्विस लिमिटेड जेसीटीएसएल में फिलहाल तैनात पदाधिकारियों के भी अलग-अलग सुर है जिसे देखकर लगता है कि इनमें ही आपसी तालमेल का अभाव है। जेसीटीएसएल के चेयरमैन पीके देब जहां रोडवेज से कंपनी का एग्रीमेंट हो जाने की जानकारी दे रहे है वहीं कंपनी की मैनेजिंग डाइरेक्टर मालिनी अग्रवाल ऐसे किसी भी एग्रीमेंट का होने से इनकार करती है। ऐसे में रोडवेज और लोगों से जुड़े कई मुद्दे जो सवाल खड़ा कर रहे है क्या जिम्मेदार लोग उन पर गौर फरमाएंगे।
रोडवेज के सीएमडी पीके देब ने डीबीस्टार से बातचीत में कहा है कि कंपनी का रोडवेज से समझौता हो गया जबकि कंपनी की एमडी मालिनी अग्रवाल कहती है कि जल्द ही समझौता होने की उम्मीद है ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कंपनी के दोनों पदाधिकारी बसों को चलाने में रूचि नहीं ले रहे या इनमें कोई तालमेल नहीं है। जानकारों की माने तो जब सारा काम रोडवेज से ही लेना था तो अलग से कंपनी बनाने की जरूरत क्या थी? रोडवेज के कर्मचारी यूनियनों ने सवाल उठाया है कि रोडवेज का ड्राईवर और कंपनी की बसें होगी तो दुर्घटना होने पर क्लेम की जिम्मेदारी किसकी होगी? यूनियन सदस्यों ने यह भी मंशा जताई की क्या कंपनी रोडवेज के चालक-परिचालकों को सभी सुविधाएं देंगी या किराए बतौर कर्मचारी का उपयोग करेगी। मसले पर कंपनी की एमडी मालिनी अग्रवाल ने साफ कहा कि दुर्घटना होने पर क्लेम की जिम्मेदारी कंपनी की होगी। ऐसे में चालक-परिचालकों की जिम्मेदारी को भी होने वाले एग्रीमेंट में उल्लेख किया जाएगा। रोडवेज को किस खाते से कंपनी भुगतान करेंगी तो अग्रवाल का कहना है कि ज्यादा जानकारी एग्रीमेंट होने के बाद ही दे सकती हूं। कंपनी का काम देख रही जेडीए उपायुक्त बीआरटीएस प्रीति माथुर ने बताया कि समझौते की भाषा तैयार है कुछ दिनों बाद सरकार की स्वीकृति मिलने पर समझौता हो जाएगा।

Sunday, March 7, 2010

सुरक्षा पर भारी न पड़ जाए खुबसूरती

विधानसभा में वॉच टावर बनाने का मामला
देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले आतंकी हमलों को देखते हुए विधानसभा की सुरक्षा के लिहाज से बनाए जाने वाले वॉच टावर दो साल में भी नहीं बन पाए। ऐसा तो तब हो रहा है जब देश में एक बार फिर आतंकी हमलों का साया नजर आ रहा है। ऐसे में कब कौन विधानसभा की कुछ ही उंची दीवार को धता बताकर किसी भी अनहोनी घटना को अंजाम दे जाए। इस बारे में लापरवाही महज इसलिए बरती जा रही है कि एक आर्किटेक्ट ने यह इशारा कर दिया कि वॉच टावर से विधानसभा की खुबसूरती फीकी पड़ जाएगी।
जानकारी के अनुसार सुरक्षा के लिहाज से तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष सुमित्रा सिंह ने पहल करते हुए वॉच टावर बनाने का सुझाव रखा। इस मामले में विधानसभा के कॉर्नर पर पांच वॉच टावर बनाने की सहमति हुई। टावर बनाने के लिए सार्वजनिक निर्माण विभाग को जिम्मेदारी सौंपी। इससे पूर्व आर्किटेक्ट से नक्शा बनवाकर करीब ङङङलाख रुपए भी पास कराए। इसके बाद चुनाव नजदीक आ गए। इंजीनियरों ने काम शुरू किया तो टावर विधानसभा की दीवार से ऊंचे आए तो तत्कालीन विधानसभा सचिव ने निर्माण कार्य रुकवा दिया। बताया जाता है कि आर्किटेक्ट ने विधानसभा की खुबसूरती कम होने का अंदेशा जताया था। ऐसे में टावर निर्माण का कार्य ज्यों का त्यों अधूरा ही छोड़ दिया गया। जब इस बारे में निर्माण विभाग के एक्सईएन सुनील गुप्ता से जानकारी मांगी तो उन्होंने इस बारे में विधानसभा सचिव से ही जानकारी लेने की कहकर पल्ला झाड़ लिया।
पूर्व विधानसभा अध्यक्ष सुमित्रा सिंह से बातचीत
क्या आपके समय सुरक्षा को लेकर वॉच टावर बनाने का निर्णय हुआ था?
हां...क्यों नहीं।
लेकिन करीब दो साल होने को आए टावर अभी भी नहीं बन पाए?
पता नहीं क्यों नहीं बन पाए। हमने तो सुरक्षा के लिहाज से टावर बनाने का निर्णय किया था, लेकिन जानकारी मिली है कि किसी आर्किटेक्ट ने विधानसभा की खुबसूरती को लेकर संदेह जताया था।
लेकिन सुरक्षा जरूरी है या खुबसूरती?
पता नहीं ये लोग क्या कर रहे है। मेरे समय में तो कई नई और अच्छी योजनाएं शुरू कराई थी, लेकिन ये क्या चाहते है समझ नहीं आ रहा।
विधानसभा सचिव एचआर कुड़ी से सवाल
विधानसभा में वॉच टावर का काम अधूरा पड़ा है?
हैरानी से.... वॉच टावर का काम होना था। मुझे जानकारी नहीं।
विधानसभा के पांचों दिशाओं में अधूरा पड़ा निर्माण भी नहीं दिखाई दिया आपको?
सही कह रहा हूं। मुझे कोई जानकारी नहीं है ।
सुरक्षा के लिहाज से विधानसभा में वॉच टावर बनाने थे?
अच्छा ...जानकारी करवाता हूं।
वॉच टावर से क्या होता फायदा
विधानसभा के पांच दिशाओं में करीब १२ फीट उंची गुमटीनुमा टावर बनाए जाने से दो सिपाहियों की दिन रात निगरानी होनी थी। वॉच टावर से विधानसभा की दीवार के दोनों तरफ होने वाली गतिविधियों पर आसानी से निगरानी हो सकती थी। यहां तक की टावर से प्रदर्शनकारियों की अचानक की जाने वाली कार्रवाई पर पैनी निगाह रखी जा सकती है।

कैदियों से डरते है सुरक्षाकर्मी

चित्तौडग़ढ़ से कैदियों की फरारी का मामला हो या जयपुर जेल से वसूली के लिए कैदियों की ओर से मिलने वाली धमकी। इन दिनों सूर्खियों में जेल और कैदी ही बने है। प्रशासन और सरकार इस मामले में बेबस नजर आ रही है। बरसों से जेल में जहां सिपाहियों की नई भर्ती नहीं हुई वहीं मोबाइल पर रोक लगाने के लिए जैमर के आदेश मिलने में ही दशक गुजार दिए। ऐसे में डीजी जेल ओमेन्द्र भारद्वाज से डीबी स्टार रिपोर्टर दिनेश गौतम ने बात की तो उन्होंने हालात सुधरने का भरोसा तो दिलाया, लेकिन उन्हें भी अंदाजा है कि सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा।
इन दिनों जेल की बडी चर्चा है?
्रइसमें हम भी क्या कर सकते है। अकेले हमारे बूते सब कुछ सुधार नहीं हो सकता।
क्या कारण है कि जेल की व्यवस्थाएं गड़बड़ा रही है?
एक कारण हो तो सुधारा भी जाए। कई कारण है।
जैसे ?
जयपुर जेल के बारे में बताए तो यहां २२०० कैदियों की है, लेकिन पांच हजार से ज्यादा कैदी है। ऐसे में स्टाफ की कमी होना तो स्वाभाविक है।
आपके व्यवस्थाएं सुधारने के लिए सरकार को नहीं लिखा?
कितनी ही दफा इस बारे में लिखा जा चुका है। होता तो कुछ है नहीं, हम क्या कर सकते है।
जानकारी मिली है कि जयपुर जेल को भी दूसरी जगह शिफ्ट किया जा सकता है?
नहीं ... पहले ही सुरक्षाकर्मियों की भारी कमी है। दूसरी एक जेल निर्माण में करीब सौ करोड़ रुपए की लागत आती है। अन्य व्यवस्थागत खर्चे अलग है सो।
जेल में जैमर लगाने की योजना क्यों पूरी नहीं हो रही है?
योजना प्रोसेजर में है। आदेश जारी होने वाले है। ...लेकिन उससे भी क्या फायदा होगा।
क्यों जैमर से कैदियों की मोबाइल पर होने वाली बातचीत पर असर नहीं होगा?
बगैर मिलीभगत के तो काम नहीं हो सकता। लेकिन सबूत के अभाव में किसी पर आरोप भी नहीं लगा सकते। रही बात कैदियों की तो उनसे भी सुरक्षाकर्मी डरते है।
क्या कैदियों से सुरक्षाकर्मी डरते है?
बिल्कुल...बडे अपराधियों का इतना खौफ है कि सुरक्षाकर्मी उनकी तलाशी लेने से कतराते है। ऐसे में मोबाइल लाने व ले जाने के लिए आसानी रहती है।
तो क्या जांच सही नहीं होती?
जांच कैसे सही हो सकती है। शाम को ६ बजे तक जांच करनी पड़ती है। ये व्यवस्था पहले लाइट नहीं होने के कारण थी। लेकिन अब इसे बढ़ाकर रात आठ बजे तक किया जाना चाहिए। जांच के लिए अलग से एजेंसी होनी चाहिए। जो बाहर से आने वाले कैदियों की जांच अच्छी तरह से कर सके।
जेल में सुधार के लिए क्या चल रहा है?
कुछ नहीं जब तक कैदियों के मामले का त्वरित निस्तारण नहीं होगा सुधार भी नजर नहीं आएगा।
मतलब?
चित्तौडग़ढ़ मामले में यही तो हुआ। फरार होने वाले कैदी ६ साल से बंद थे और अभी उनकी सजा ही तय नहीं हो पाई थी। वहां पर पिछले दो साल से जज की सीट खाली पड़ी है। कैदियों की सुनवाई नहीं होने से जेलें भर रही है। राज्य की सभी जेलों में कैपेसिटी से ज्यादा कैदी है।
सरकार की ओर से कोई राहत मिलने की उम्मीद है?
सरकार ने इस मामले में एक एडिशनल चीफ सेक्रेटरी की अध्यक्षता में कमेटी का गठन किया है। जल्द ही कमेटी जेलों में सुधार के लिए काम करेगी।
नई जेलें बनाने की जरूरत पैदा नहीं हो रही?
जेलों में स्टाफ तो है नहीं। जो है वे भी रिटायरमेंट की अर्जी लगाते है। पिछले साल ही सात फीसदी अधिकारियों ने स्वैच्छिक रिटायरमेंट के लिए आवेदन किया था। हमने उनको समझाया और कुछ दिनों तक काम करने के लिए मनाया है। अभी भी कई आवेदन आए हुए है।
लेकिन कैदियों की संख्या भी तो बढ़ रही है?
न्यायालय में पेंडिंग चल रहे मामलों का निस्तारण हो जाता है तो बहुत से कैदियों को भी राहत मिलेगी। सरकार को इसमें सालाना डेढ़ सौ करोड़ बजट बढ़ाना पड़ेगा सो अलग। ऐसे में क्या सरकार का बजट कैदियों तक की सीमित नहीं हो जाए।
सुरक्षाकर्मियों के मानसिक तनाव को दूर करने के लिए कुछ होता है जेल में ?
मानसिक तनाव को दूर करने के लिए समय किसके पास है। जेल में तैनात कर्मचारियों पर वर्क लोड इतना है कि पुलिस महकमे में सबसे ज्यादा मृत्युदर रहती है। ऐसे में लोग तो नौकरी छोडऩे को तैयार है।
आपने अपने समय में क्या सुधार किए है?
सुधार एक दिन में नहीं होता। सरकार आजादी के बाद से कहती रही है कि गरीबी मिटा देंगे लेकिन आज तक तो नहीं मिटी। सरकार के प्रयास चल रहे है वैसे ही हमारे भी जेल में सुधार के प्रयास चल रहे है।

Monday, February 8, 2010

मुंबइ में चार घंटे सरकारराज

मुबंइ में कुछ दशकॊ के बाद सिरफ चार घंटे सरकारराज नजर आया। इससे पहले यहां शिवसेना का राज था या महाराष्ट नवनिरमाण सेना का। मखमली कपडॊं में लिपटे राजकुमार के लिए राज्य के मुख्यमंञी‍‍़ २५ हजार पुलिसकमी और सेना के विशेष कंमाडॊ तैनात हॊ तॊ कॊइ काले झंडे तॊ दूर काले कपडें नहीं पहन सकता। देश और राज्य पर राज करने वाली राजकुमार कॊ चार घंटे घुमाने के बाद ऎसे इतराइ जैसे भगवान कॊ मना लिया हॊ। आखिर देश का नागरिक चार घंटे इतने तामझाम में चार घंटे घूम लिया तॊ क्या गजब हॊ गया। इससे साबित हॊता है कि सरकार भी मानती है कि हमारी सरकार केवल चार घंटे के लिए ही थी वैसे भी सबकॊ खबर है कि मुंबइ में राज किसका है।